
लोग सोचते हैं
( Log sochte hain )
मगरूर हो रहा हूं
बेशऊर हो रहा हूं
जैसे जैसे मैं मशहूर हो रहा हूं,
लोग सोचते हैं।
वक्त ने सिखा दी
परख इंसान की
मैं अपनों से दूर हो रहा हूं,
लोग सोचते हैं।
दूर हो रहा हूं
मगरूर हो रहा हूं
मै जानबूझकर मजबूर हो रहा हूं,
लोग सोचते हैं।
गम में कहीं खोकर
ख़ामोश हो जाऊं गर
पी कर शराब मैं नसे में चूर हो रहा हूं,
लोग सोचते हैं
हवाओं से पूछ लू गर
सुगंधों की हर खबर
ईंद का मैं जैसे नूर हो रहा हूं,
लोग सोचते हैं।
मरहम लगा दूं चोट पर
जो जख्म देता दर्द
मसीहा किसी मैं किसी का पीर हो रहा हूं,
लोग सोचते हैं।
मेहनत करूं दिन
दिन टूटे भले बदन
कवि से कहां मैं कैसे मजदूर हो रहा हूं,
लोग सोचते हैं।
झुक गया शरीर से
चमड़ी गयी लटक
मरूंगा नही मैं नसूर हो रहा हूं
लोग सोचते हैं।
रचनाकार –रामबृक्ष बहादुरपुरी
( अम्बेडकरनगर )
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