मुझे गहराई का चस्का लगा था
मुझे गहराई का चस्का लगा था
मुझे गहराई का चस्का लगा था
तभी इक झील में डूबा हुआ था
हक़ीक़त का मज़ा अपना मज़ा है
मुहब्बत का नशा अपना नशा था
हुई जब गुफ़्तुगू ऐसे खुला वो
कोई मोती जो सीपी में छिपा था
तुम्हारा दिल महक कैसे रहा है
तुम्हारा दिल तो पत्थर का सुना था
बता देता मै अपनी ख्वाहिशें पर
ग़ज़ल में ज़म का पहलू आ रहा था
कई रातें यूँ पहले भी कटीँ थी
किसी के साथ पहला रतजगा था
मेरी बातों पे जब वो मुस्कुराई
कहीँ बंजर ज़मीं पर गुल खिला था
‘असद’ मैं क्या कहूँ कैसी लगी वो
उसे देखा तो इक धड़का लगा था
असद अकबराबादी