न जाने क्यूॅं?

( Na Jane Kyon ) 

आज भी जब
निकलता हूॅं ब्राह्मणों की गली में
तो अनायास ही
खड़े हो जाते हैं कान
चौकस मुद्रा में
और चारों ओर दौड़ती हुईं अपलक
आकार में बड़ी हो जाती हैं ऑंखें
भौंहें तन जाती हैं
फड़कने लगते हैं हाथ-पाॅंव
और रगों में
चोट-कचोट की मिश्रित उबाल के साथ
बहने लगता है लहू
धमनियाॅं दहक उठती हैं
न जाने क्यूॅं?..

न जाने क्यूॅं?
रोम-रोम आक्रोशित हो उठता है
जाग उठता है ज्वालामुखी
फूट उठता है लावा
क्रान्ति का स्वर
विद्रोह का बिगुल
मेरे भीतर
ऐसी जगहों से गुजरते हुए
तत्क्षण।

 

नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’
नरैना,रोकड़ी,खाईं,खाईं
यमुनापार,करछना, प्रयागराज ( उत्तर प्रदेश )

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