बंजारा के दस कविताएं

बंजारा की नौ नवेली कविताएँ

गली (एक)
————-

एक
जुलाहे ने बुनी थी
दूसरी
यह —
ईट-गारे
और घर-आंगन से बनी है .

यह भी
मैली है
नुक्कड़ तक फैली है
फटी है
और सड़कों से कटी है .

इसमें भी
रंगों-से रिश्ते हैं
और धागों-से अभागे लोग —
जो
जार
जार
रोते हैं
ओढ़कर
तार
तार
इसी चादर में सोते हैं !

 

गली (दो)
————

जिंदगी
भागमभाग
अलावा इसके कुछ नहीं
चौराहे
बदहवास
उसके आस-पास.

द्वार-द्वार जागे
डरकर अपने से भागे
पता नहीं आगे
राह किसकी तांके है
सूने पहर
सांय-सांय-सी होती है
अंदर .

संकरे गाले की गर्म हवा-सी
पसरे नाले के सांस की फूंफकार-सी
गाती है
(प)गली —
ये कैसा आभास
उसके आस-पास !

 

गली (तीन)
————–

उसका बदन
कांच के टुकड़े की धार-सा
तीक्ष्ण
तेज
और पैना
उसका बदन
कांच के पार परछायी-सा
नग्न
नदी
और नाव .

उसका बदन
कांच की खुली खिड़की-सा
मस्त
मुक्त
और वैश्य
उसका बदन
कांच के शीश-महल -सा
गढ़ा
गुदा
और स्वेद .

उसका बदन
कांच के तले कांच-सा
चित
चुप
और मृत !

 

गली (चार)
————–

लड़की
निकली थी
बाज़ार
कि ओव्हर बिज्र से
गिर
बस्ती के बीच
बेहोश होकर पड़ी है .

लड़की
निश्चेष्ट है
जब्कि
हवा और धूप
उसकी
स्कर्ट के नीचे
पिंडलियों से खेल रहीं हैं.

बूढ़े–बंगले
आंखें सेंक रहें हैं
बच्चे–झरोके
पत्थर फेंक रहें हैं
और
जवान–दरवाजे
लड़की
अब उनमें समायेंगी,यूं देख रहें हैं !

 

गली (पांच)
————–

रात के पानी में
पत्थर-सी
रौशनी पड़ी
और
एक लहर–कानाफूसी
खिड़की से कूद
हर तीसरे मकान तक पहुंच गयी.

कि
वहां
सलाखों के पार
आंखें हैं
जिनमें —
गहराई है
काई है
जलन है उम्र-भर की .

और
वहीं कहीं
अंधेरे-किनारे
मत्स्य हुयी है
जो देह
ये पत्थर
उसी पे,पड़ा होगा !

 

गली (छः)
———–

जरूर
कहीं
कुछ हुआ है
उधर
मकानों की ओर
मैं
पांव धरते ही सोचता हूं —

जरुर
किसी
माथे की बिंदी
चटक कर टूटी है
या
चांद का
दम घुट गया है .

अन्यथा
वह
मेरी अपनी परिचित मंजिल
मुझे
दूर —
शाम से ही
यूं
विधवा की कलाई-सी न लगती !

 

गली (सात)
————–

तुम
उस ओर
मोड़ के पीपल तले
जहां
गहरा सन्नाटा है
कभी
भूलकर मत जाना .

वहां
परछाइयां
सीढ़ी के साये-साये
अंधेरे में
राहगीर को बुलाती है
तुम
भीतर
हरगिज़ मत जाना .

वह
यादों की धूल से घिरा
और
आवाजों की गंध से भरा
अंधा कुआं
तुम्हें
सस्ती मौत भी नहीं दे सकता !

 

गली (आठ)
————–

इस
शहर के पांव में
वह
जो
गहरा-सा घाव है
वही
दूर से
मेरा ठिकाना लगता है.

जिसकी
फुनसियां
घरों की छतें
और
मवाद
लोगों की भीड़ है .

दर्द की
दूरबीन दिखाती है —
तनाव
चरम सीमा पर है
और
बरसों पुराना
अब
यह जख्म भी फूटने को है !

 

गली (नौ)
———–

वह
चिकनी
तिरछी
अकड़ी
और कटी हुयी एक टांग है .

जाने किस छोर की
कि इस ओर
ईमारतों के किनारे सटी है
रेल
पुल
तालाब
सड़क
सबसे कटी-कटी है .

समुद्र जैसे —
उसकी जांघ की नसों से
रिसता /रक्त है
लोग जैसे —
उसके घुटने के घाव पे
भिन्नाती/मक्खियां हैं
और
पार्क जैसे —
उसके अंगूठे के नाखून में
उलझी/निकर …..

सुरेश बंजारा
(कवि व्यंग्य गज़लकार)
गोंदिया. महाराष्ट्र

 

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