बंजारा के दस कविताएं
बंजारा के दस कविताएं

1

प्रवाह
——-

सोचता हूं
कि दुनिया की सारी बारूद मिट्टी बन जाये
और मैं
मिट्टी के गमलों में बीज रोप दूं
विष उगलती मशीनगनों को प्रेम की विरासत सौप दूं .

पर जमीन का
कोई टुकड़ा अब सुरक्षित नहीं लगता .

कि मैं
सूनी सरहद पे निहत्था खड़ा
अपने चश्मे से, धूल -जमी मिट्टी के कण पोंछता हूं
सोचता हूं !

2. 

प्रवाह

——-

सुनता हूं
कि किसी मुल्क की शाखों पर –बसते हैं भूखे परिंदे
और मैं
लहराते हुये तिरंगे की शान
हर ऊचाई पर गढ़ रहा नये -नये किर्तिमान .

ये कैसी व्यवस्था है –सीमा के उस पार
जिसने एक सीमा हैदर को श्रीमती सीमा बना दिया .

कि मैं
विश्व -शांति का सिपाही
कट्टरता के उफनते दरिया में से भी करुणा के मोती ही
चुनता हूं
सुनता हूं !

3. 

प्रवाह

——-

सींचता हूं
कि मन के दूरस्थ कोने में है –एक जलता हुआ मणिपुर
और मैं
हाथों में आंख का पानी लिये खड़ा
राख हो चुकी बस्ती के बीच अचानक आ पड़ा .

अंततः यही होगा /जब जंगल -निवास पर
थोपी गयी संस्कृति‌ का विलास लादा जायेगा .

कि मैं
ऐसे में — अंदर सुलगते ख्यालों से
किसी आदिवासी युवती का शव बाहर खींचता हूं
सींचता हूं !

4. 

प्रवाह

——-

डरता हूं
कि इस आंधी में सूखे पत्ते ना उड़ जाये
और मैं
पीपल की टहनियों पर कांपने लगा
धूल समेटकर हवा का रुख भांपने लगा .

एक दिन यहां सूनी शाम
अपहृत लड़की का कत्ल हुआ था .

कि मैं
बार – बार पतझड़ की तरह
उसके गढ़े और सड़ते हुये मुर्दा अंगों पर झरता हूं
‌‌‌ डरता हूं !

5.

प्रवाह

——-

 डरता हूं
कि कहीं हमारी दोस्ती में दरार ना पड़ जाये
और मैं
जड़ों में जा मिट्टी – सा दर्द सहता रहा
हर सच्चाई के बावजूद झूठ ही कहता रहा‌‌ ‌.

कभी धूल में खेलती शरारतें
छतों और चौराहों पर चर्चा का सब्जेक्ट हुआ करती .

कि मैं
तुम आबाद रहो — दोस्त मेरे!
लो, तुम्हारी खातिर दिल की वेदी पर अपने प्यार का ‌
‌‌‌ ‌‌ त्याग करता हूं
‌‌‌‌‌ डरता हूं‌ !

6.

प्रवाह

——-

 डरता हूं
कि इस आंधी में सूखे पत्ते ना उड़ जाये
और मैं
पीपल की टहनियों पर कांपने लगा
धूल समेटकर हवा का रुख भांपने लगा .

एक दिन यहां सूनी शाम
अपहृत लड़की का कत्ल हुआ था .

कि मैं
बार – बार पतझड़ की तरह
उसके गढ़े और सड़ते हुये मुर्दा अंगों पर झरता हूं
‌‌‌ डरता हूं !

7.

प्रवाह

——-

मानता हूं
कि तुम्हारी ज़िंदगी में बहुत लोग आये होंगे
और मैं
जिसके दर्द का कोई साया ही नहीं
तुम्हारी तरफ दोबारा लौट आया ही नहीं .

मनिषा का आंचल
तथा बच्चों की जवाबदेही बांधती रही मुझे .

कि मैं
अक्सर शाम को फरमाईशों के साथ
दरवाजे पर ठिठक कर सामानों में से कुछ छानता हूं
‌‌ मानता हूं !

8.

प्रवाह

——-

सुनता हूं
कि किसी मुल्क की शाखों पर –बसते हैं भूखे परिंदे
और मैं
लहराते हुये तिरंगे की शान
हर ऊचाई पर गढ़ रहा नये -नये किर्तिमान .

ये कैसी व्यवस्था है –सीमा के उस पार
जिसने एक सीमा हैदर को श्रीमती सीमा बना दिया .

कि मैं
विश्व -शांति का सिपाही
कट्टरता के उफनते दरिया में से भी करुणा के मोती ही
चुनता हूं
सुनता हूं !

9.

प्रवाह

——-

जानता हूं
कि तुम्हें पाना इस जीवन में बहुत मुश्किल है
और मैं
सावन के बादलों की तरह
तुम्हारे पीछे पड़ा रहता था पागलों की तरह .

प्रेम में जलता हुआ धूपदीप
आस्था की प्यास को अस्तित्व -गंध से भर देता है .

कि मैं
ये जान कर — वहां अर्थी कब की उठ चुकीं
उन्ही गलियों में तुम्हारे होने की खाक आज भी छानता हूं
जानता हूं !

10.

प्रवाह

——-

डरता हूं
कि कहीं हमारी दोस्ती में दरार ना पड़ जाये
और मैं
जड़ों में जा मिट्टी – सा दर्द सहता रहा
हर सच्चाई के बावजूद झूठ ही कहता रहा‌‌ ‌.

कभी धूल में खेलती शरारतें
छतों और चौराहों पर चर्चा का सब्जेक्ट हुआ करती .

कि मैं
तुम आबाद रहो — दोस्त मेरे!
लो, तुम्हारी खातिर दिल की वेदी पर अपने प्यार का ‌
‌‌‌ ‌‌ त्याग करता हूं
‌‌‌‌‌ डरता हूं‌ !
……

सुरेश बंजारा
(कवि व्यंग्य गज़लकार)
गोंदिया. महाराष्ट्र

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