Pani par Kavita

पानी | Pani Par Kavita

पानी!

( Pani ) 

समुद्र की आँख से छलका पानी,
घटा टूटकर बरसा पानी।
बढ़ा नदी में प्रदूषण ऐसा,
फूट-फूटकर रोया पानी।

मानों तो गंगा जल है पानी,
नहीं मानों तो बहता पानी।
पत्थर,पहाड़,पानी की संतानें,
जनम सभी को देता पानी।

आदमी है बुलबुला पानी का,
सबका बोझ उठाता पानी।
बनकर गुच्छा बूँद का देखो,
पांव जमीं पर रखता पानी।

मरती कभी न आत्मा इसकी,
बनकर ग्लेशियर सोता पानी।
नहीं तोड़ता किसी से रिश्ता,
अपनी रस्म निभाता पानी।

जड़-चेतन हरेक का आँसू,
अपने हाथों धोता पानी।
कैसे जलेगा चूल्हा बस्ती का,
अगर कहीं जो रूठा पानी

रामकेश एम यादव (कवि, साहित्यकार)
( मुंबई )
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