Parivaar
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परिवार का सही मतलब तो पहले समझ में आता था। आजकल तो परिवार चार दिवारी में “हम दो हमारे दो” के बीच में सिमट कर रह गया है! पहले ना सिर्फ परिवार में लोग मिल-जुलकर रहते थे। बल्कि भजन और भोजन भी संग में होता था। फिर भी संयुक्त परिवार की मिसाल आज भी कई घरों में देखने को मिल जाती है।

साथ में रहने के फायदे भी अनेक होते थे। बच्चे कब बड़े हो जाते थे पता ही नहीं चलता था। जहॉं एक तरफ उन्हें दादा दादी से भरपूर प्यार मिलता था। वहीं दूसरी तरफ चाचा चाची से भी लाड़ दुलार मिलता था। चचेरे भाई बहन भी अपने ही लगते थे।

घर में जो सबसे बड़े होते थे वह घर के मुखिया कहलाते थे। सभी उनकी रजामंदी से ही सारा काम करते थे। उनकी आज्ञा लेना न सिर्फ अनिवार्य होता था, बल्कि यह उनका सच्चा सम्मान भी होता था। वह अपनी सूझबूझ से हर समस्या को हल करते थे। तभी तो “हेड ऑफ द फैमिली” कहलाते थे।

माता-पिता की स्वयं की पाँच से आठ संतान होती थी। ताऊ जी-ताई जी, चाचा जी – चाची जी के बच्चों को मिलाकर परिवार में करीबन 15 से 20 लोग हँसी खुशी रहते थे। ना कोई लड़ाई झगड़ा, ना कोई बँटवारे की बात बस प्रेम और अपनापन।

घर के बड़ों का बच्चों पर पूरी तरह नियंत्रण रहता था। ना ही बच्चे बुरी संगत में पड़ते थे ना ही परिवार में लड़ाई झगड़े होते थे। आज कमाल की बात तो यह है कि परिवार इतना छोटा हो गया है। उसके बाद भी एक दूसरे के प्रति प्यार या अपनापन तो खो गया है। कोई किसी की कद्र नहीं करता है। ना ही कोई किसी को सम्मान देता है। सिर्फ मतलबी, स्वार्थ के दिखावटी रिश्ते हो गए हैं।

शायद पहले हम शिक्षित नहीं थे, इसलिए रिश्तों की परिभाषा जानते थे। आज हम पढ़े लिखे समझदार हो गए हैं। अपना भला बुरा खुद समझने लगे हैं। धीरे-धीरे जैसे जैसे बच्चे कम होने लगे, उसके बाद सब अपना अपना घर बसाने लगे।

आजकल तो हम दो हमारे दो का नारा भी फीका पड़ने लगा है क्योंकि ज़्यादातर माता-पिता एक ही संतान पसंद करते हैं। अगर यही हाल रहा तो अंकल और आंटी शब्द केवल डिक्शनरी में देखने को मिलेंगे! ना ताऊजी, चाचा जी, मासी जी, ना मामा जी, बुआ जी होंगे। ना ही चचेरे ममेरे, फूफेरे भाई बहन होंगे।

मुझे तो यह सोचकर डर लगता है कि अगर सच में ऐसा होगा की दुनिया कैसी होगी?

 

 सुमित मानधना ‘गौरव’

सूरत ( गुजरात )

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