फासला | Phasala

फासला

( Phasala )

 

सोचता हूं उकेरूं आज आपका चित्र
या लिखूं अनाम कुछ भाग्य का लेखा
लिखा तो बहुत कुछ अब तक हमने
फिर भी लगता है की कुछ नही लिखा

रख लिया हूं स्मृतियों को सहेजकर
मिले थे आप जब हमसे पहली बार
हुई न कुछ बातें ,तब भी बहुत हो गईं
कह न सके हम कुछ,तुम भी चुप रहीं

यही तो सहज आकर्षण है प्रेम का
जो होता है प्रस्फुटित अंकुर की तरह
कहीं कुछ शोर नही ,कुछ पुकार नहीं
तब भी बन जाती है बूंद सागर की तरह

न बुलाया धरती ने आकाश को कभी
न गगन ने कहा की वसुधे करीब आओ
मिला ही देता है सागर क्षितिज पर उन्हें
मिलते राधा श्याम जैसे बांसुरी की सुर से

प्रेम तो उपजता है आत्मिक धरातल ar hi
देह की मलीनता मे उसका निवास नही
विश्वास ही करा देता है दर्शन अत्थर मे
फासला है तन का ही , रूह का होता नही

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

यह भी पढ़ें :-

तर बतर. | Tar Batar

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *