
अब बहारों से भी डर लगता है
( Ab baharon se bhi dar lagta hai )
तूफानों से लड़ते-लड़ते बहारों से भी डर लगता है।
रहा नहीं वो प्रेम सलोना अंगारों सा घर लगता है।
शब्द बाण वो तीखे तीखे विषभरे उतरे दिल के पार।
ना जाने कब लूट ले जाए हमको अपना ही रिश्तेदार।
अपना भाई हमको शत्रु वो पराया दिलबर लगता है।
स्वार्थ के सिंधु में डूबता जलता हर मंजर लगता है।
अपनों के वो बोल मीठे शब्द सारा जहर लगता है।
घृणा नफरतों से झुलसा हमको ये शहर लगता है।
नेह की धारा कब बरसे नैनों में समाये है अंगारे।
तार-तार रिश्तों को कर दिया कैसे आएंगी बहारें।
डगर डगर पे संघर्षों ने हमको जीना सीखलाया।
सुनो सबकी करो वही जो अंतर्मन ने बतलाया।
झूठ लूट कपट का डेरा दुनिया में सब धोखा है।
परहित कर्म सच्चा भाई सत्य कर्म अनोखा है।
कवि : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )