प्रकृति की सीख
( Prakriti ki seekh )
बदलना प्रकृति की फितरत
फिर क्यों इंसान हिस्सेदार हैं।
प्रकृति के बदलने में कहीं ना कहीं
इंसान भी बराबर जिम्मेदार हैं।
जैसे तप और छाया देना
प्रकृति का काम हैं।
वैसे ही कभी खुशी कभी गम,
जिंदगी का नाम हैं।
कभी कबार पूछता, आसमां तुझे
किस बात पर इतना गुमान हैं
तू बस गरजता रहता,
क्या तेरी इतनी ही शान हैं।
टूट के गिरे बुढापे में सुखे
पत्ते इतनी ही जान हैं।
गिरा देख हसने वालों
कल तुम्हारा भी यही बखान हैं।
लेखक : दिनेश कुमावत
( सुरत गुजरात )
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