साहित्यिक ऋषि थे : रविंद्र नाथ टैगोर
पुण्य तिथि ७ अगस्त विशेष
साहित्य साधना है। साहित्यकार व साधक है जो अनवरत साधना के बल पर महान साहित्य का सृजन करता है । जिन भी साहित्यकारों ने कालजयी रचनाएं लिखी हुई वह महान साधक भी थे।
साहित्य लेखक का प्राण होता है । जब तक कोई पाठक चेतना के उस परम तत्व को प्राप्त नहीं कर लेता, उसके गूढ़ अर्थों को नहीं समझ सकता है । इसलिए कभी-कभी लोग अर्थ का अनर्थ कर देते हैं ।
ऋषियों ने वेदों की ऋचाएं साधना की गहराई में डूब कर ही सृजित किया है । संत तुलसीदास जी महाराज , कबीरदास जी,सूरदास जी,रहीम, रसखान आदि कोई लेखक नहीं बल्कि महान साधक थे ।
जिन्होंने साधना की अनुभूतियों को शब्दों में पिरोया । ऐसी ही महान परंपरा के ऋषि साहित्यकार थे –रविंद्र नाथ टैगोर जिन्होंने प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य को शब्दों में पिरोकर गीतांजलि नामक काव्य सुमन लिखा । जिसे नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।
रविंद्र नाथ का जन्म 15 अगस्त 1861 को कोलकाता के प्रसिद्ध ठाकुर वंश में हुआ था। आपके पिता महर्षि देवेंद्र नाथ ठाकुर एक धार्मिक एवं सामाजिक नेता थे ।
रविंद्र के पिता अक्सर बाहर रहते थे मां बीमार रहा करती थी जिससे आपका पालन अधिकांशतः नौकर ही करते थे ।नौकर बालक रविंद्र को डरा धमका कर रखते थे ।
स्कूल के शिक्षक भी डांट फटकार एवं कठोर अनुशासन अपनाते जिससे बालक रवि बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव के हो गए। संवेदनाएं शब्द बनकर कविता का रूप धारण करने लगे और मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में उनकी कविताएं मासिक पत्रों में छपने लगे थे।
रविंद्र बाबू के घर पर आया श्रेष्ठ कवियों का आना जाना लगा रहता था। एवं साहित्यिक गोष्ठी होते रहते थे। इससे कविता की ओर रविंद्र की जन्मजात प्रतिभा विकसित होती रही।
एक बार जब वे अपने पिता के साथ हिमालय भ्रमण को गए थे तो वहां घंटो पर्वत के सुरम्य वादियों,नदी, नालों के किनारे आनंद के साथ घूमते रहते और किसी पेड़ के नीचे कविता लिखने बैठ जाते थे ।
घर वापस आने पर भी वह साहित्य सीजन में लगे रहे। उन्हें एक कमरे में बंद होकर घुट घुट कर मरने की अपेक्षा प्रकृति की गोद में उन्मुक्त विचरण करना ज्यादा रुचता था ।
उनके बड़े भाई बड़े भाई ज्योतिंद्र नाथ ठाकुर ने भारती नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन करने लगे तो उन्होंने उसमें कुछ लेख छपाये।उनके घर वालों का सपना था कि रवि बाबू एक बड़े बैरिस्टर सरकारी अफसर बनकर घर परिवार की देखभाल करें।
परंतु उन्हें तो प्रकृति की गोद ही मोहित करती थी। इसीलिए घरवालों के विरोध करने पर भी के साहित्य साधना में लगे रहे । घरवालों ने जब देखा कि उनका यहां पढ़ने में मन नहीं लग रहा तो उन्हें पढ़ने विलायत भेज दिया ।
इंग्लैंड में उन्होंने अपना अधिकांश समय मिल्टन, वायरन, टेनिशन, शैली की रचनाओं के अध्ययन में ही लगाया था ।उन्होंने कई लेख उस समय भारती में छपाए ।
रविंद्र बाबू ऐसे महान शख्सियत है जिनकी द्वारा लिखित रचना भारत एवं बांग्लादेश 2 देशों में राष्ट्रगान के रूप में गाया जाता है। उन्हें 1913 में उनकी प्रसिद्ध काव्य रचना गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।
जलियांवाला बाग कांड जिसमें जनरल डायर ने हजारों निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून डाला था । दुखित होकर उन्होंने अंग्रेज सरकार द्वारा दी गई नाइट की उपाधि लौटा दिया ।व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा उन्हें देश का गौरव अधिक सम्मानित लगा। अंततः 7 अगस्त 1941 उन्होंने अंतिम सांस ली । जहां से आए थे वहीं चले गए।
उनके द्वारा स्थापित शांतिनिकेतन के बारे में एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था जिसने शांतिनिकेतन नहीं देखा उसने हिंदुस्तान को ही नहीं देखा।
वर्तमान समय में विद्यालयों में देखा जाए तो बच्चों का जीवन घुटन भरा हो गया है। न तो विद्यालय में खेल के मैदान उपलब्ध हैं जहां पर बच्चे कुछ शारीरिक श्रम कर सके। अधिकांश विद्यालय बंद कमरों में चलाए जा रहे हैं जहां खिड़कियां भी ठीक से नहीं है जिसके कारण अधिकांश बच्चे श्वास के रोगी हो रहें हैं।
ऐसी स्थिति में याद आता है गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा संचालित प्रकृति की वादियों में स्थापित शांतिनिकेतन। प्रकृति स्वयं में बहुत बड़ी शिक्षक है।
जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं उसी प्रकार से अनेकानेक बीमारियों से ग्रसित होते जा रहे हैं ।यही कारण है कि छोटे-छोटे बच्चे भी बचपन में ही बुढ़ापे के शिकार हो रहे हैं ।हृदय रोग मधुमेह जैसे रोग बच्चों में भी होने लगे हैं। यदि हम बच्चों को बीमारियों से बचाना है तो प्रकृति की गोद में ले जाना होगा।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )