राधेश विकास की कविताएँ | Radhesh Vikas Poetry

खेल

चलो
एक खेल
मिलकर खेलते हैं।
जिसमें प्रतिद्वन्दी
कोई नहीं होगा,
न किसी को ललकारना ही है।
न किसी की मर्यादा रखनी है,
क्यों कि मर्यादा है ही नहीं
फिर ताख पर भी रखने
की जरूरत क्या?

ये लोगबाग
बिलावजह चिल्ल पों कर रहे है,
अब इनको कौन बताये
कि हमारे पाजामे में खुद नाड़ा नहीं है
और हम नाड़ा बना भी नही सकते,
अपने लिए नाड़े की जरूरत
भी है,
तो तुम्हारा नाड़ा तो खीचूंगा ही
तुम नंगे हो जाओ तो हम क्या करें ?

हम इज्जत
बनाने वाले तो हैं नहीं
हम इज्जत लुटते हैं,
फिर अपने हिसाब से अपनों को
वही इज्जत बेंच देते हैं,
ठीक बनी बनायी
सरकारी कम्पनियों की तरह
अपनी किसी खास मालिक को
वो भी मालामाल और
हम भी।

हम
जहाँ से चले थे
खाली हाथ थे,
हमारे पास न कुछ खाने को था
न कुछ खोने को,
जब तक मांगकर खा सके,
खाये,
पेट भर जाने के बाद
आदमी चिंतनाने लगता है
सो हम भी चिंतनाने लगे,
तब से लूट कर खाते हैं,
यहाँ अपना कोई थोड़ी है,
फिर बता भी दिया है,
सब माया मोह है, आप अपना परलोक बनाओ.
लोक हम संभालगें।

हमारे हुनर
का कोई पारावार नहीं
क्योंकि हम पहले आँख पर पट्टी बांधते हैं फिर नंगा करके
कहते है..
देखो तुम कितने सुन्दर लग रहे हो?
सब सहज ही
विश्वास कर लेते हैं,
क्योंकि मन में
इतनी गांठे लगा दी जाती हैं
कोई एक दूसरे के
आँख की पट्टी खोलने को तैयार ही नहीं है
जिससे खुद को देख सके..

हम आज भी
दावे के साथ कहते है..
कि भरी सभा में अपनों के बीच
नारी को वस्त्रहीन किया है,
हमने लिये हैं
अग्नि परीक्षाएं
हमने ही जलाई है होलिका
हमने ही किये हैं इक्यावन टुकड़े
फिर यदा कदा
ये हाथरस,
ये निर्भया,
ये मणिपुरआदि
छिटपुट साधारण घटनायें हैं।
हमारे लिये…..

हाँ..
एक बात जरुर है
इन सारी घटनाओं के बाद भी
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ
कि देश के माथे पर
ये घटना कलंक है
या तुम….?

ये सियासी
शराब चेहरे पर
चमक जरूर बिखेरती है
मगर मन को काला कर देती है,
फिर हर सरल राहों को मकड़ी का जाला कर देती है…
पहले मैदान खाली करती हैं
फिर खेलती हैं घिनौना खेल…
बन जाती है अमरबेल..?

रुक पगले

रुक पगले
कहाँ जा रहा?
तेरी यात्रा,
मंजिल,
रास्ते,
सब तो तू
लगातार
गुमाता जा रहा।
यात्रा से पहले
कोई शर्त,
अनुबंध,
करार
कुछ भी तो नहीं था।
तुझे खुद भी
नहीं पता था
अपना खुद का
कल,
आज,
कल
जो भी मिला
कुछ न कुछ
पकड़ाता ही जा रहा।
जो बनती
गयीं तेरे लिए
बंधन,
बेड़ियाँ,
उलझन,
आ बैल मुझे मार
सा सिर टकराता जा रहा।
जो दिखाया,
जो सुनाया,
जो सुंघाया बस वही
देखता,
सुनता,
सूंघता
निरंतर ही जा रहा।
गर तू आदमी है तो
सुन….
जन्म से पहले
कोई शर्त नहीं थी,
तो मरने से पहले
कोई शर्त मत रख
तू जी मगर
सारे अनुबंधों
शर्तो से मुक्त होकर
उतार वो लबादे
जो ढक देता हैं
तुम्हारे मूल को
और तुम्हें परिभाषित
करता है… जाति, धर्म,
नस्ल के आधार पर,
जो खींचता है
रोज नई लकीर
अपने बनाये इंचीटेप से
नापकर
निर्धारित कर देता है दायरा
तुम्हारे कदमों का.
जिसे मान लेते हो
अपनी उपलब्धियां और
डूब जाते हो गहरे कुएँ में
जहाँ तुम्हारी टर्रटर्राहट
सुनने को भी कोई नहीं रहता
और मान लेते हो उसी को
यात्रा, मजिल, और नियति भी
नहीं जान पाते
नदी का अनहद प्रवाह,
मौज,
सागर से मिलने की वो बेताबी
जहाँ होती है सारे लबादे उतार देने का उतावलापन
और हाथों में होता है
मानवता का इकबाल बुलंद
करने वाला
परचम…

 

छल

नये दौर का ये
नया सिलसिला।
पहले गले मिलता
फिर घोंटता गला।।

पहले पानी भरता
फिर पानी उतारता,
फिर प्रचार करता
कि मुश्किल से संभला।।

पाँव काटकर कहता है
जिंदगी सफ़र है सुहाना,
संभल के चलो भाई
पस्त हो रहा है हौसला।।

सारे जहाँ से अच्छा कहकर
फिर अपनी रौ में बहकर,
लूटने और बेचने लगा जैसे
चार सौ बीस पर क्यूब्ड निकला।।

रुपया , पैसा , आना भूले
बची सिर्फ बातों की पाई,
गरीब का गुल्लक फूटा गया
खुद रखता है डालर का डला।।

करता हरदम हरहर बमबम
भाषण में वसुधैव कुटुंबकम,
छंटते बादल कैसे संकट के
छलकाकर आँसू जब छला।।

नफ़रत की खेती काट रहा
अपना पराया छाँट रहा,
विकास वसूल जाये भाड़ में
चाहिए अपने हक़ में फैसला।।

संशय

जीवन होता सिर्फ सुखों
का संचय नहीं है।
सिंह का विपिन विचरण
भी निर्भय नहीं है।।

रात की नींद सुबह तक
कहाँ पूरी होती है?
जब ऑंखें ऊनीदी न हों
ऐसा कोई शय नहीं है।।

शब्द के आगे पीछे कोई
होता तो अर्थ पा जाता,
मगर कोई उपसर्ग नहीं है
कोई प्रत्यय नहीं है।।

तटस्थ हो सिर्फ देख रहा
तमाशा तमाशबीनों सा।
मगर मजबूर है उसके
स्वभाव में उभय नहीं है।।

जी चाहता है कर लूँ सौदा
एक बार मर्जी के विरुद्ध।
मगर प्यार में पहले से होता
कुछ भी तय नहीं है।।

जहर का इलाज जहर से
होते देख माथा ठनकता है।
जो कुछ पय सा दिख
रहा सच में पय नहीं है।।

अगर भ्रम , भ्रान्ति मन
की मिट जाये विकास।
समझ लेना सच से पर्दा
उठने में कोई संशय नहीं है।।

बुरा लगा

सच बोलना बुरा लगा।
गांठ खोलना बुरा लगा।।

पलड़े इधर उधर लगे,
बराबर तौलना बुरा लगा।।

झूठी तालियों का आदी,
खून खौलना बुरा लगा।।

अलाव,आग,पतीला सब,
पानी उबलना बुरा लगा।।

सुनता नहीं सुनाता सिर्फ,
मगर बोलना बुरा लगा।।

नफ़रत नगर के बासिंदे,
प्यार घोलना बुरा लगा।।

 

तो अच्छा

इक भूल सुधर जाये तो अच्छा।
कुछ कर गुजर जाये तो अच्छा।।

ख़ौफ़ से बेखौफ हो जाऊँ,
जमाना डर जाये तो अच्छा।।

जब वो नशे मन नजर आता है,
नजर से उतर जाये तो अच्छा।।

ऐसी दोस्ती के नखरे कौन उठाये,
अच्छा होता मुकर जाये तो अच्छा।।

मरने से पहले मर जाये आँख का पानी,
ऐसे शय से पहले मर जाये तो अच्छा।।

जिसकी मुहब्बत से जीते उसी से नफ़रत,
ऐसी दरिया में उठ जाये भंवर तो अच्छा।।

तुझसे जुदा होके जी लेगा विकास,
बोल गर तू संवर जाये तो अच्छा।।

 

बात

बात..
लाभ -हानि,
जीवन-मरण,
जस -अपजस
की नहीं है।

बात…
अपना-पराया,
उचित-अनुचित,
स्वार्थ-परमार्थ
की भी नहीं है।

बात….तो
तेरे- मेरे,
खोने-पाने,
हिंसा-अहिंसा
की भी नहीं है।

बात…..
सिर्फ इतनी है
कि हमें मिट्टी में
सिर्फ वहीं बीज
रोपने हैं
जो हर मौसम में
बिना अवरोध के
लहलहाती रहे।

बात
बने या बिगड़े
कोई मतलब नहीं,
ये बात तब और
पुख्ता हो जाती है जब
सिर्फ और सिर्फ
अपना मतलब गांठना
एक मात्र मकसद हो जाता है।

तब
परे रख दी जाती हैं
नैतिकताएं,
मर्यादाएं
स्वतः नतमस्तक
हो जाती हैं,
शिथिल हो जाते हैं
बंधन सारे।
चेहरे छिप जाते हैं,
मुखौटे नेतृत्व करने लगते हैं,
मिथको के सिर पर
असत्य का आपीड़ सुशोभित
हो जाता है,
और बात बनाने वाले
मानने लगते हैं
बात बिगाड़ने वालों की…
… बात?

 

अमृत बन जाये

मन माखनचोर जैसा हो
तन सारथी बन जाये।
रक्षा करे तो हर नारी
भक्तिन द्रोपदी बन जाये।।

होठों पर मुरली हो
अन्यायी के लिए चक्र,
योगबल से गोवर्धन धारे
तो महारथी बन जाये।।

लेकर वैभव द्वारिका का
श्रीदामा का मित्र बन जाये।
खोये जीवन रस का कंदुक
तो नर्तक विचित्र बन जाये।।

सामर्थ्य हो कर भी पार्थ का
पथ प्रशस्त करे सारथी सा,
प्रेम का प्रतीक बने तो मीरा
का विष भी अमृत बन जाये।।

गांव,ग्वालबाल,गोपी की सांसों
में मुरली की तान बन जाये।
जो बदलने आये ब्रज सारा
उस उधव का ध्यान बन जाये।।

लीला जो करे तो अंधा भी
भजन में लोरी सुनाने लगे,
जीवन रस जो घोले जाति धर्म
भूलकर रसखान बन जाये।।

हवाएं जिंदगी
बख्श होती हैं,
चुप हूँ आँधियों
के अंदेसे से
मगर डरता हूँ
कहीं चुप
सन्नाटे में न
बदल जाए..
क्योंकि सन्नाटे के
गर्भ में तूफान
पलता है?

 

मैं चुप हूँ

मैं चुप हूँ
क्योंकि मौन
की गोंद में विरोध
और सामंजस्य दोनों
पलते हैं,
कभी कभी
मौन सुसुप्त
ज्वालामुखी को
पोषता है।

मैं चुप हूँ
पर चुप्पी को
जितना दबाओ
कभी कभी वो
दबने से और
अधिक
उभर आती हैं
वे बातें जिन्हें
हम इतिहास
मान चुके होते हैं।

मैं चुप हूँ
क्योंकि मुखर होना
कभी कभी घातक होता है
पर समय के सत्य से
संगत करना अवश्यभावी
हो चला है,
क्योंकि
जब तलवारें
अपने लिए उजाला
तलाशती हैं तो
खतरे में पड़ी जुबानों
का बोलना
और भी जरूरी
हो जाता है…

कैसी रहनुमाई है

कैसे कह दूँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया गाती है?
कदम कदम हो रही लहूलुहान भारत की छाती है।।
बदरंग हो रही तस्वीर है, उतरा उतरा हर चेहरा है,
सिर्फ कौवों की काँव काँव है कोयल कहाँ गाती है ??
बंजर जमीं हो रही सफ़र में जलती रेत है,
प्यास कंठ में चटकती भूख बावली
हो बिललाती है।
सत्ता के सिर पर बैठकर कर रहे कैसी रहनुमाई है,
सच पर गला बैठ जाता है पर झूठ पर गाल बजाती है।।
सिर्फ बातों में अंतिम व्यक्ति की ही चर्चा है,
सारे मालपुए पहली ही सफ़ में बंट जाती है।।
रहनुमाई का गुरूर सातवें आसमान पर चढ़ बैठा है,
पहले नजर नहीं आती गर नजर आये तो गुर्राती है।।
थामकर जिनको बैठाया वही थाली खींच रहे,
अब तो उनको देख भूख भी थर्राती है।।
बेबस वैद है बरबस हाथ मीज रहा विकास ,
दवा वही दे रहा जो मरीज को भाती है।।

कर बैठे

अपना अपना करते करते जाने
कब खाट उतान कर बैठे।
चालों की ऐसी चकर घिन्नी
चली घर में घमासान कर बैठे।।

कैसा शातिर आशिक है नफ़रत
भी प्यार की तरह बाँट दिया?
जोश में होश गवाँ दिये और
खतरे में जिस्म-ओ-जान कर बैठे।।

चमन का चैन-ओ-अमन जब
चुभने लगा नजर में उनकी,
तब बनकर माली चमन को ही
मरघट कभी मसान कर बैठे।।

छल का छलका कर आँसू
हरदम अपनापन दिखलाता है,
हवाई किले रोज बनाता मन की
बातों पर अभिमान कर बैठे।।

मछलियों से कहा कि तालाब
का पानी कभी नहीं सूखने देंगें,
डुबोकर मछलियों को खुमारी में
खुद को वको ध्यान कर बैठे।।

नाव गर तूफान में होती तो
हर हाल में निकल ही आती,
निकलेगी कैसे विकास जब
मांझी ही नाव में तूफान कर बैठे।

 

राधेश विकास (प्रवक्ता),
प्रयागराज ( उत्तर प्रदेश )

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