रजनी गुप्ता ‘पूनम चंद्रिका’ की रचनाएँ

कुछ तो है वो बात : गीत

सुनकर तुम शरमार्ई “रजनी!” “कुछ तो है वो बात!”
चाँद छेड़कर पूछ रहा है, सिहर उठा क्यों गात?

तारों वाली झीनी चुनरी, महक रहा है वेश।
बेला-चंपा से हैं सज्जित, घूँघर काले केश।
संध्या की लाली गालों पर, अधर हुए जलजात।
“कुछ तो है वो बात!”

सुनो रूपसी क्यों करती हो, तुम ऐसा श्रृंगार?
घायल है दिल का हर कोना, हारा मैं दिलदार।
डाल-डाल मैं बचता जाऊँ, तुम्हें विजय सौगात।
“कुछ तो है वो बात!”

नारि-नवेली मेरा जीवन, झंकृत करती नित्य।
वाणी में गुंजित है वीणा, नैनों में साहित्य।
छैल-छबीली तुम बिन मेरे, कटें न पल-छिन सात।
“कुछ तो है वो बात!”

दिल में जाने क्या-क्या चलता रहता है

दिल में जाने क्या-क्या चलता रहता है
ज़ुल्मी ज़माना आग उगलता रहता है

दिल प्रेमी को देख मचलता रहता है
क़समें खा वो बात बदलता रहता है

घर से भूखा बाप निकलता रहता है
बच्चों के सुख में ख़ुद ढलता रहता है

हर एक घड़ी वक़्त फिसलता रहता है
ठोकर खाके ही शख़्स सँभलता रहता है

दे दी है आवाज़ तुम्हें मैंने साजन
दिल में रजनी शोर-सा पलता रहता है

माँ गंगा जी

लिया भगीरथ ने कठिन, निश्चय मन में धार।
पुत्र सगर के हित हुआ, गंगा का अवतार।।

गंगा पावन तीर्थ है, हरता हर अज्ञान।
जन मन रंजन सुरसरित, योगी करते ध्यान।।

माँ गंगा अति पावनी, सुर-सरिता है नाम।
देव-लोक से चल पड़ीं, होकर वह उद्दाम।।

हर-हर गंगे सब करें, हर लेतीं अघ- भार।
निर्मल करतीं हैं धरा, उर- आँगन हर द्वार।।

डुबकी लेकर गंग में, नर धोते निज पाप।
नहीं सँभलता जो अधम, होता पश्चाताप।

माँ गंगा की गोद में,जन-जन करें प्रवेश।
खुशियाँ छाईं हर तरफ,झूम रहा है देश।।

हर्षित नर- नारी बहुत,करते गंगा स्नान।
संत-बाल सब झूमते,मंदिर-मंदिर गान।।

नर्म हाथों पे हिना मैंने लगाई होती

नर्म हाथों पे हिना मैंने लगाई होती
तुझको जो याद मेरी रोज़ ही आई होती

वस्ल की रात में जो शम्अ जलाई होती
ज़िन्दगी फिर तो उजालों में नहाई होती

नाम तेरा मैं हथेली पे लिखाकर रख लूँ
तूने जो प्यार की ये रस्म निभाई होती

अनछुए इश्क़ का अहसास बयाँ हो जाता
वक़्त पर नज़्म सनम तूने सुनाई होती

मुझको अंजान सनम तू तो कभी क्यों लगता
मेरी आँखों से अगर आँख मिलाई होती

तूने इल्ज़ाम लगाए नहीं होते मुझ पर
अश्क़ गिरते न कभी आँख दुखाई होती

तुझको भर-भर के दुआ रोज़ दिया करती मैं
मेरे ज़ख़्मों की जो दी तूने दवाई होती

तुझको पैग़ाम न भिजवाती कभी क़ासिद से
जान लेवा न अगर इतनी ज़ुदाई होती

एक आवाज़ पे तू दौड़ा चला आ जाता
काश चूड़ी की खनक तुझको लुभाई होती

गजरा-कंगन भी पहनती मैं लगाती बिंदिया
दिल में दिलदार जो तेरे मैं समाई होती

मैं तेरी रूह के सागर में उतरती हमदम
सैर रजनी को कभी उसकी कराई होती

शब्दार्थ-
हिना- मेंहदी
वस्ल- मिलन
क़ासिद- डाकिया

दोहे

देव – जागरण का दिवस, तुलसी – पूजन साथ!
सुख की वर्षा हो सदा, हे लक्ष्मी के नाथ !!१!!

तुलसी का पूजन करो, अति पावन यह काज।
देवी करतीं हैं कृपा, होता स्वस्थ समाज ।।२।।

पादप तुलसी का धरूँ, अपने आँगन ठाँव।
हितकारी माता सदृश, रखती हैं निज छाँव ।।३।।

तुम ही मेरी चूड़ियाँ, तुम्हीं कलाई नाथ।
तुम सारे श्रृंगार हो, रुचिकर है तव साथ ।।४।।

कुंडलिया छंद

तुलसी का पादप धरूँ, अपने आँगन- ठाँव।
हितकारी माता सदृश, रखतीं हैं निज छाँव।।
रखतीं हैं निज छाँव, सदन को पावन करतीं।
अर्पित कर मैं नीर, सुखों से झोली भरतीं।।
पाकर अमर सुहाग, खुशी से रजनी हुलसी‌।
रक्षित हों संतान, धरूँ मैं पादप तुलसी।।

खाटूश्यामजी के प्राकट्योत्सव पर मेरा दोहा

बर्बरीक हे श्याम प्रभु, भगवन खाटूश्याम!
हारे के संबल सुनो, आई तेरे धाम ।।५।।

तेरा साथ

सात जन्म का लग रहा, प्रियतम तेरा साथ।
बीच राह मत छोड़ना, ले हाथों में हाथ!!

एक जन्म कम लग रहा, साजन तेरा साथ।
थाम रखोगे साजना, शत जन्मों तक हाथ?

मुक्तक-१

यहीं तुलसी यहीं मीरा यहीं रसखान बसते हैं।
इसी में तो कबीरा के हमेशा प्रान बसते हैं।
बिहारी ने रचे दोहे मिलेंगे सूर के पद भी-
लगे है मातु सम हिन्दी यहीं भगवान बसते हैं।

मुक्तक-२

तुम्हें कार्तिक महीने की छठी तिथि माँ सुहाती है।
सजी नारी दिवाकर देख व्रत का प्रण उठाती है।
कठिन छत्तीस घंटे तक बिना जल-अन्न के रहती-
निभाती रीति वह सारी भजन गाकर सुनाती है।।

मुक्तक-३

परिमल पद रज देश की, पावन मलय सुगंध।
सदा निभाते ही रहें, हम इससे अनुबंध।
राम कृष्ण गौतम सभी, गाते इसका गान-
भारत भू पर जन्म हो, पाएँ बलिष्ठ कंध।

छठ पर्व

1

वैदिक संस्कृति की झलक, छठ पूजा का पर्व।
सनातनी हिन्दू सभी, करते इस पर गर्व।।
करते इस पर गर्व, प्रकृति से प्रेम सिखाती।
सुख- वैभव धन- धान्य, सभी पर खूब लुटाती।।
सूर्यदेव को अर्घ्य, कृपा फिर होती दैविक।
रजनी कहती सर्व, बिहारी मानें वैदिक।।

2
व्रत करके सब नारियाँ, माँगे अटल सुहाग।
पति- बच्चों के साथ में, उत्तम हो अनुराग।।
उत्तम हो अनुराग, प्रकृति माता यह जानो।
छठ मैया है नाम, सभी इनको पहचानो।।
हरतीं सारे कष्ट, मिलें खुशियाँ जी भर के।
रजनी कहे सुहाग, मिले सबको व्रत करके।।

3
करते आदिक दिन सदा, सब नहाय अरु खाय।
दिवस दूसरे फिर करें, खरना तब मन लाय।।
खरना तब मन लाय, तरणि अस्ताचल होते।
देकर उनको अर्घ्य, व्रती निर्जल तब सोते।
बाद घण्ट छत्तीस, उषा में पारण धरते।
रजनी कहे प्रसाद, समर्पित तब हैं करते।।

दीवाली दीपों का मेला

शतक पाँच सौ रखा अकेला।
भक्तों ने यह दुख भी झेला।।
दलगत राजनीति का खेला।
न्यायालय में मचा झमेला।।
चमत्कार देखा अलबेला।
बना अवध में भवन नवेला।।
रामलला पर नेह उड़ेला।
दीवाली दीपों का मेला।।

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन नख पर लिया, गिरिधर ने जब धार।
हर्षित ब्रज के लोग सब, हुई इंद्र की हार।।

संकट काटो मम सकल, हे गिरिधर महराज।
वरद हस्त हो शीश पर, रखना मेरी लाज।।

दीपोत्सव

1
आएँ हम दीपावली, सुखद मनाएँ आज।
सबके सिर पर हो सदा, बस खुशियों का ताज।
बस खुशियों का ताज, गरीबों के घर जाकर।
बाँटें प्रेम अथाह, उन्हें हम गले लगाकर।।
दीपक लेकर साथ, मिठाई भी ले जाएँ।
रजनी को है गर्व, खुशी जब देकर आएँ।।

2
दिया जलाएँ हम सभी, निज फौजी के नाम।
हिन्द राष्ट्र- हित वे सदा, आते हैं नित काम।।
आते हैं नित काम, पर्व को सुखद बनाकर।
इनका त्याग महान, करें सब कुछ न्योछावर।।
हमको दे सुख- चैन, हटाते सभी बलाएँ।
रजनी को है ध्यान, सभी हम दिया जलाएँँ।।

3
दीवाली घर- घर मनी, अवध बना सुखधाम।
चौदह वर्षों बाद जब, आए थे प्रभु राम।।
आए थे प्रभु राम, लिए सँग सीता माता।
और सहित हनुमान, लखन सम अति प्रिय भ्राता।।
जन- जन में उत्साह, नगर में थी खुशहाली।
रजनी थी उजियार, मनी घर- घर दीवाली।।

छोटी दीपावली


पूज रहे सब संग में, लक्ष्मी और गणेश।
हो वर्षा सौभाग्य की, करें कुबेर प्रवेश।।


नरक चतुर्दश पर रहें, दुख कोसों ही दूर।
माँ लक्ष्मी की हो कृपा, हम सब पर भरपूर।।


हनुमत का है अवतरण, नरक चतुर्दश- वार।
बल विद्या अरु बुद्धि के, बजरंगी भण्डार।।


दुःख सहें कन्या बहुत, थीं षोडशः हजार।
नरकासुर को मार कर, दिया कृष्ण ने तार।।


शिव चतुर्दशी पर मनुज, शिव को करो प्रणाम।
पंचामृत अर्पण करो, गौरा का लो नाम।।

दिलासा तो न देते तुम

क़सम खाकर हमारी ही भुला हमको न देते तुम
वफ़ा की नेक मूरत को कहीं फ़िर खो न देते तुम

पड़ी हम पर बड़ी भारी तुम्हारी नफरतों की बू
कली दिल की हमारी तोड़ हमको जो न देते तुम

हमारी बा-बफ़ाई की ज़रा भी क़द्र होती तो
जफ़ाओं से भरे काँटे जिगर में बो न देते तुम

खली होगी हमारी भी कमी शायद तुम्हें दिलबर
गले मिलके हमारे फूट कर यूँ रो न देते तुम

तुम्हारे दिल पे है हमदम हमेशा राज़ रजनी का
हमारी ज़ीस्त में झूठी दिलासा तो न देते तुम

वोट की है दुकान मुश्किल में

वोट की है दुकान मुश्किल में
हर चुनावी निशान मुश्किल में

बेटियों के दहेज़ की ख़ातिर
बाप का है मकान मुश्किल में

फ़स्ल जयचंद की उगी हर सू
मुल्क़ का है जवान मुश्किल में

जी सकेगा किसान अब कैसे?
आज उसका लगान मुश्किल में

चार दिन की है ज़िंदगी तेरी
उस पे कड़वी ज़ुबान मुश्किल में

साथ कोई बशर नहीं देगा
अंत आया तो जान मुश्किल में

हुस्न रजनी का चाँद ने देखा
ख़ुद है उसका जहान मुश्किल में

आया करवा चौथ

एक साल पर फिर सजन, आया करवा चौथ।
रहूँ सुहागन चिर जतन, आया करवा चौथ।।

करवा का व्रत मैं रखूँ, कर सोलह श्रृंगार।
पिया निहारें थिर नयन, आया करवा चौथ।।

प्रणय निवेदन कर पिया, गहे हाथ में हाथ।
आलिंगन में घिर मिलन, आया करवा चौथ।।

प्रियतम का मुख देखकर, जुड़े हृदय के तार।
हुई प्रेम में गिर मगन, आया करवा चौथ।।

हर पल तू सजता रहे, बन सिंदूरी माथ।
पिय ‘रजनी’ के सिर-वदन, आया करवा चौथ।।

मुक्तक
आधार छंद- गीतिका

पाश में थे मोह के अर्जुन! छुड़ाया आपको।
कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में गीता सुनाया आपको।

भव्य एवं दिव्य अपने रूप का दर्शन करा-
श्रेष्ठ होता कर्म ही फल से सिखाया आपको।

वस्ल के वक़्त

( Vasl ke Waqt )

वस्ल के वक़्त वो रुका ही नहीं
माह-ए-उल्फ़त में दिल मिला ही नहीं

मुस्कुराते हैं ख़ार में भी गुल
हार से उनका वास्ता ही नहीं

ज़ीस्त क़ुर्बान इस पे है मेरी
हिन्द जैसा वतन बना ही नहीं

क्यों किनारों से राब्ता रखता
ये समुंदर को ख़ुद पता ही नहीं

तेरी आग़ोश में रही रजनी
पर मिला इसका कुछ सिला ही नहीं

गौरी जिनका नाम


सुता हिमालय की उमा, गौरी जिनका नाम।
अष्टम् दुर्गा रूप में, करें सफल सब काम।।

आईं माँ नवरात्रि में, करके केहरिनाद।
रूप महागौरी शुभम्, हरें सकल अवसाद।।

सर्व सुमंगलदायिनी, श्वेताम्बरा प्रसिद्ध।
सती सदागति, शाम्भवी, करतीं सुखी-समृद्ध।।


आईं माँ नवरात्रि में, होकर सिंह सवार।
चूड़ी बिंदी से करूँ, माता का श्रृंगार।।

अष्टभुजा नवरूप में, करतीं हैं उद्धार।
शक्तिमयी संकट हरो, करो दुष्ट संहार।।

जगजननी जगदंबिका, सुखी रहे संतान।
रजनी पूनम चंद्रिका, माँग रही वरदान।।

चुनरी माँ की लाल है, लाल सजे श्रृंगार।
हलवा- पूड़ी भोग ले, भक्त खड़े दरबार।।

रम्य कमलदल से करूँ, माता का श्रृंगार।
सदा सुहागन मैं रहूँ, करना माँ उपकार।।

ऊँचे पर्वत पर बना, माँ तेरा दरबार।
हस्तबद्ध आते सभी, लेकर भक्त पुकार।।
१०
रण- चंडी का रूप धर, बन दुर्गा अवतार।
दुष्ट दलन कर मातु ने, भरी विजय हुंकार।।
११
सदा पुकारूँ मैं तुझे, हे दुर्गा हे अंब।
भीषण विपदा में रहीं, एक तुम्हीं अवलंब।।
१२
वरद- हस्त वरदायिनी, महिमा अपरम्पार।
जगराता फिर आ गया, भरने को भण्डार।।
१३
आतीं माँ नवरात्रि में, करके केहरिनाद।
रूप सुहाना भा गया, हुआ हृदय आह्लाद।।
१४
माँ दुर्गा ममतामयी,अद्भुत है श्रृंगार।
शीश मुकुट गल माल है, अष्टभुजी जयकार।।

रजनी गुप्ता ‘पूनम चंद्रिका’

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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