रक्तबीज सी अभिलाषाएं

( Raktabeej si abhilashayen  )

 

रे मायावी बोल।
आदि अन्त क्या इस नाटक का,
कुछ रहस्य तो खोल।
रे मायावी बोल।

रह कर स्वयं अदृश्य दृश्य तू
प्रतिपल रहे बदलता।
ऊपर नीचे दिग्दिगन्त में,
इंगित तेरा चलता।
माटी के पुतले को तूने
प्राण शक्ति दे डाली।
नश्वर काया में अविनश्वर
विषय एषणा डाली।

दुर्वह अहंभाव दे डाला,
क्या है उसका मोल।
रे मायावी बोल।

सतत् अतृप्तियों के तर्पण में
सुख का मिथ्याभाष।
बद्धपाश हो भौतिकता में
ढूंढ़े मनुज विकास।
रक्तबीज सी अभिलाषाएं
प्रतिपल बढ़ती जायें।
प्राप्त अभीप्सित जो न हुआ
तो कितने अश्रु बहाये।

क्षण का जीवन मन का विभ्रम,
काल रहा है डोल।
रे मायावी बोल।

 

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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