साल गया है
साल गया है

साल गया है

 

 

बातें हमारी फिर से वो टाल गया है।

बस इसी कशमकश में ये भी साल गया है।।

 

जिसने भरे हैं पेट सबके बहाकर करके स्वेद,

उसको ही लोग कह रहे कंगाल गया है।।

 

बीमारियां भी एक हों तो गिनाऊं हुजूर,।

शायद ही कोई यहां से कोई खुशहाल गया है।।

 

एक बात मेरी समझ में आयी नहीं अब तक,

आंसू बहाकर अभी मालामाल गया है।।

 

हर वक्त चुभते रहते हैं सोने नहीं देते ,

कांटे जिगर में इतने वो पाल गया है।।

 

उम्मीदें कुछ जगी हैं उजालें की हमें भी,

लेकर के शेष हाथ में मशाल गया है।।

 

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कवि व शायर: शेष मणि शर्मा “इलाहाबादी”
प्रा०वि०-बहेरा वि खं-महोली,
जनपद सीतापुर ( उत्तर प्रदेश।)

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