सीमा पाण्डेय ‘नयन’ की ग़ज़लें

सीमा पाण्डेय ‘नयन’ की ग़ज़लें | Seema Pandey Nayan Poetry

नई आदत लगा ली है

वहम की आजकल उसने नई आदत लगा ली है,
कोई हो वाकया शक की नज़र मुझ पर ही डाली है।

यहां सौ सौ बखेड़े जान को मसरूफ़ियत इतनी
नहीं फुरसत तुम्हें तो ये बताओ कौन खाली है।

बढ़ी है बात तो कुछ तो तुम्हारी भी ख़ता होगी,
कभी बजती नहीं इक हाथ से सरकार ताली है।

किया लड़ना झगड़ना बंद वो खामोश है बिल्कुल,
नई तरकीब अब ये दिल जलाने को निकाली है।

ग़रज़ से ही नहीं आता कोई आदत मगर उसकी,
कोई पहुॅंचा जो दर पर तो समझता है सवाली है।

बदलते वक्त ने उसको ज़रा भी तो नहीं बदला
वही ऑंखें ग़ज़ाली हैं वही चेहरा मिसाली है।

कदमपोशी करे वो शख़्स तो खुश मत बहुत होना,
सुना बहुतों की पगड़ी भी उसी ने तो उछाली है।

सुना देता है अपना फ़ैसला दो चार मिन्टो में
बशर वो फ़ितरतन लगता ज़रा सा लाउबाली है।

नयन इस दौर में सब कुछ नया सब मुख़्तलिफ़ सा है,
चमन में आजकल गुल को मसलता खुद ही माली है।

वाकया -घटना
ग़रज़ -प्रयोजन, मतलब
सवाली -मांगने वाला ,भिखारी
ग़ज़ाली -हिरन जैसी
मिसाली-जिसका उदाहरण दिया जाए
बशर-आदमी
लाउबाली– जल्द क्रोधित होने वाला झक्की

ख़ार निकल आए हैं

लम्स का लब पे ले अंगार निकल आए हैं,
बुतकदे से हो गुनहगार निकल आए हैं।

उसने रोका था तक़ल्लुफ़ में मगर हम न रुके,
अब है अफ़सोस की बेकार निकल आए हैं।

जब से उन्वान कहानी का रखे तुम रंजिश,
इसमें कितने नये किरदार निकल आए हैं।

याख़ुदा जबसे अता की हमें दौलत शोहरत
तब से कितने हमारे यार निकल आए हैं।

आज तो ईद दिवाली की तरह रौनक है,
आज बाज़ार में सरकार निकल आए हैं।

कुछ दुआएं थीं माॅं की कुछ थी नवाजिश रब की,
हम मुसीबत से हर इक बार निकल आए हैं।

हमनें खेतों में मरासिम के गुलों को बोया,
क्यों नयन उसमें मगर ख़ार निकल आये हैं।

लम्स -स्पर्श
बुतकदे -मूर्ति रखने का स्थान, यहां खूबसूरत औरतों की महफ़िल
उन्वान -शीर्षक
किरदार -चरित्र,लोग
नवाजिश -कृपा
मरासिम -संबंध
ख़ार -काॅंटे

वो अकेले में मुहब्बत भी जता देता है

वो अकेले में मुहब्बत भी जता देता है,
ज़ख़्म देता है तो मरहम भी लगा देता है।

मेरी ख़ामी है मैं माज़ी से निकलती ही नहीं,
उसकी ख़ूबी है वो माज़ी को भुला देता है

बात ये है की वो बातों का धनी है साहब,
बात ही बात में सौ बात बना देता है।

ये भरोसा भी अजब चीज़ अजब जज़्बा है,
जिसपे भी कीजिए बस वो ही दगा देता है।

इस बुरे वक़्त की भी एक है ये अच्छाई,
कौन कैसा है ये पहचान करा देता है।

राब्ता तोड़ के ही बैठ गया वो सबसे,
न तो मिलता है न मिलने का पता देता है।

इश्क़ में तुम जो ख़सारे की कहा करते हो,
तुम भी पागल हो कहां इश्क़ नफ़ा देता है।

जंग भी बाज़ दफ़ा हार के जीते जाते,
जब अना छोड़ कोई सर को झुका देता है।

दोस्तों से तो वो दरवेश नयन लाख अच्छा,
एक रोटी जो खिला दूॅं तो दुआ देता है।

खामी -बुराई
खूबी -विशेषता अच्छाई
माज़ी -अतीत
जज़्बा -भाव
राब्ता – मेल जोल
ख़सारे-घाटा
नफ़ा -फायदा
बाज दफ़ा– कई बार अक़्सर
दरवेश -फ़कीर भिखारी

क्यों भला है हार ये स्वीकार तुझको ( गीत )


क्यों भला अन्याय हो स्वीकार तुझको,
क्या नहीं रण का मिला अधिकार तुझको,
तू पराजित हो गया है इसलिए की,
बिन लड़े ही हार है स्वीकार तुझको।

क्या प्रलय की ऑंधियों को देख कर भी,
एक चिड़िया हो दुखी सर को झुकाती,
ध्वस्त होता घोंसला पर हौसले से
खोज कर तिनका नए घर को बनाती,
तू बता क्या इक विहग से भी अबल है,
क्या हुआ टूटा जो सपनों का महल है,
लड़खड़ाया तो संभलना स्वयं होगा,
जीतना है युद्ध यह इस बार तुझको।
बिन लड़े ही हार है स्वीकार तुझको।।

भग्न स्वप्नों को कुरेदा रोज करता ,
क्यों विगत को याद करके रोज मरता,
जो नहीं था भाग्य में मिलता कहां से,
पर बता क्यों तू नहीं हिलता वहां से,
देख तो स्वर्णिम सबेरा छा रहा है
कुछ नहीं बिगड़ा यही बतला रहा है,
चाहिए सुख तो जरा पीड़ा सहन कर,
है लगी रोने की लत बेकार तुझको।
बिन लड़े ही हार है स्वीकार तुझको।।

कौन है ऐसा यहाॅं जिसको नहीं दुख?
हे मनुज ! क्या देवता भोगे यहाॅं सुख?
राम को वनवास वर्षों का मिला था,
देख उनका दु:ख सारा जग हिला था,
शक्ति को शिव से विलग होना पड़ा था,
कृष्ण ने भी तो समर कितना लड़ा था,
है फॅंसा जब बीच भव सागर अकेला
स्वयं ही करना इसे है पार तुझको।
बिन लड़े ही हार है स्वीकार तुझको।।

पुरानी दास्तानों से

बहुत आती है हिचकी इन पुरानी दास्तानों से,
भुलाने का मिला है हुक़्म दिल के हुक्मरानों से।

नहीं मालूम किस्सा क्या है उनकी बेनियाज़ी का,
हुआ है दिल बड़ा आजिज़ न मिलने के बहानों से।

लगाऊं दिल भला कैसे किसी दैर-ओ-हरम में मैं,
नज़र हटती नहीं मेरी सनम के आस्तानों से ।

हिसार उसकी नज़र का और बाहों की हों जंजीरें,
रिहा तब कौन होना चाहता इन क़ैदखानो से।

बदलती है ये किस्मत बाज़ुओं के ज़ोर से यारो,
नहीं आते मदद करने फ़रिश्ते आसमानों से।

सजे बाज़ार सब रंगीनियां किस काम की हैं जब,
खुशी बिकती नहीं मायूस मैं लौटी दुकानों से।

अभी कुछ साॅंप अपने आस्तीनों से निकाले हैं,
नयन पाला इन्हें था प्यार से कितने ज़मानो से।

हुक़्मरानों – हाकिम बादशाह शासक
बेनियाज़ी – उपेक्षा
दैर-ओ-हरम – मंदिर मस्ज़िद
आस्तानो– पवित्र दरवाज़ा दरगाह
हिसार– घेरा, किला

प्रिय सुनो अब तुम मुझे मत याद आना

( गीत )

कर रही स्मृतियां विसर्जित आज सारी,
बंद कर दी है विगत की वो पिटारी
तोड़ती हूं नेह का बंधन पुराना
प्रिय सुनो अब तुम मुझे मत याद आना।

हैं भुलादीं वो सभी मधुसिक्त बातें
वो सुनहले दिन रजत सी स्निग्ध रातें ।
वो तुम्हारा व्यग्र प्रणयातुर निवेदन,
सुन जिसे बरबस कुमुदिनी सा खिला मन ।

अब कदम उस राह से पीछे हटाना,
प्रिय सुनो अब तुम मुझे मत याद आना।

दिन महीने साल सब मौसम बदलते,
सूर्य हैं जो देवता हो अस्त ढलते।
सृष्टि में क्या जो न परिवर्तित हुआ है,
तब भला क्या सोच मन चिंतित हुआ है।

जो छुड़ाए हाथ उसको क्या बुलाना,
प्रिय सुनो अब तुम मुझे मत याद आना।

कुछ लगेगी देर बहलेगा ह्रदय भी,
अब बिछड़ने का नहीं है शेष भय भी।
कब रहा करती जगह भी रिक्त कोई
फिर नये साथी मिलायेगा समय भी

सीख लूंगी फिर से मैं भी खिलखिलाना,
प्रिय सुनो अब तुम मुझे मत याद आना।

जो खोया है खोने दो

मिला जो भी गनीमत और जो खोया है खोने दो,
दिल – ए-बेज़ार -की ख़्वाहिश है जो होता है होने दो।

न ज़िंदा वस्ल की ख़्वाहिश न ग़म अब हिज़्र का कोई,
है जबतक सांस ढोना जीस्त को चुपचाप ढोने दो।

समय जब सरपरस्ती का था रुख़ फेरे खड़ा था वो,
सुना अब याद करके रोज़ रोता है तो रोने दो।

लड़ी शामो सहर दिन रात हर इक पल मुक़द्दर से,
थकन सी हो रही है अब मुझे कुछ देर सोने दो।

बड़ी बेकैफ़ सी है ये फ़ज़ा ग़र कोई ऐसे में
मुहब्बत की फ़सल बोता है तो फ़िर यार बोने दो।

वो होकर बावज़ू दिन रात अब सज़दे में रहता है,
गुनाह अपने अगर वो धो रहा ऐसे तो धोने दो।

वो अय्यारी की जिससे तुम हुए काबिज़ हरिक दिल पे
सिखा मुझको भी अबकी बार वो जादू वो टोने दो।

बेज़ार – उदासीन
वस्ल – मिलन
सरपरस्ती -सहायता समर्थन संरक्षण
हिज़्र -वियोग
बेकैफ़ -बेरौनक बेमज़ा
बावज़ू-साफ़ सुधरा
अय्यारी– मक्कारी धूर्तता
काबिज़ -कब़्जा करना

हिज़्र का ग़म

जो पढ़ा जितना सुना उससे ज़ियादा निकला,
हिज़्र का ग़म तो हरिक ग़म से कुशादा निकला।

जब भी सोचा ये दिल ने उसको भुला देना है,
तब वो सोचों की गली से बे- इरादा निकला।

उसके वादों पे किया हमने भरोसा हरदम,
हर दफ़ा झूठा मगर उसका वो वादा निकला।

है बुलंदी पे अगर उसमें अना है लाज़िम
गुफ़्तगू में तो मगर वो शख़्स सादा निकला।

कामयाबी है बनी उसका मुकद्दर यूॅं की,
उसने बस वो ही किया जिसमें इफ़ादा निकला।

थी जो मुश्किल तो निकल जाता कोई हल मिल के,
उसने यूॅं छोड़ा जैसे तन से लबादा निकला।

इस बिसात- ए -इश्क़ में सब चाल रही उसकी बस
ख़ुद मिरा दिल भी उसी का तो पियादा निकला।

हिज़्र –वियोग
अना –अभिमान
लाज़िम –ज़रूरी
गुफ़्तगू –वार्तालाप
इफ़ादा –फ़ायदा
लबादा –वस्त्र
पियादा –मोहरा आगे पीछे घूमने वाला

इस ज़ुनून- ए -इश्क का

एक कतरा दौर- ए उल्फ़त का हमारे नाम था,
इस ज़ुनून- ए -इश्क का होना यही अंजाम था।

की नहीं उसने जफ़ा सब खेल ये तक़दीर का,
वो हमारे ही लिए तो एक बस बदनाम था।

टूटने पर इस मरासिम के है दिल बेचैन क्यूं,
दिल्लगी में भी कहाॅं दिल को भला आराम था।

हर बुराई का नतीज़ा भी बुरा होता मगर,
मुख़लिसी का सब्र का भी क्या मिला ईनाम था।

देख कर शोहरत हमारी रश्क़ यूॅं मत कीजिए,
हमने इस शोहरत का किश्तों में चुकाया दाम था।

हम रहे ख़ामोश तो हर एक को तकलीफ़ थी,
और जब कुछ भी कहा तो मच गया कुहराम था।

भूलने की कोशिशें अब जिनको करते हम नयन,
याद करना रात दिन उनको कभी इक काम था।

मरासिम -संबंध
मुख़लिसी-वफ़ादारी
रश्क़ -जलन ईर्ष्या
कुहराम-भगदड़

देखिए किस तरह से

देखिए किस तरह से पत्थर पिघलते हैं अभी,
वो ज़रा सी देर में घर से निकलते हैं अभी।

उस शमाॅं से रास्तों में फैलेगी जब रोशनी
देखियेगा कैसे परवाने मचलते हैं अभी।

जिससे जिससे हो ख़फ़ा तोड़ी उन्होंने दोस्ती,
वो सभी हज़रात ग़म से हाथ मलते हैं अभी।

जान ले लेते वो अपना कर भरोसा जीत कर,
आस्तीनों में भी ऐसे सांप पलते हैं अभी।

क्या हुआ मंजिल अलग पर रास्ते तो एक है,
आइए कुछ दूर तक तो साथ चलते हैं अभी।

वो नशीले नैन वो अबरू वो तिल रुख़सार का,
देख लें जो रात में करवट बदलते हैं अभी।

बस ज़रा सा टूट कर बिखरे हुए हैं हम नयन
गिर गये तो क्या हुआ गिरकर सॅंभलते हैं अभी।

सीमा पाण्डेय ‘नयन’
देवरिया  ( उत्तर प्रदेश )

हजरात- लोग
अबरू- भौंह
रुखसार –चेहरा

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