शहर में कोई अपना रहबर नहीं

शहर में कोई अपना रहबर नहीं

शहर में कोई अपना रहबर नहीं

 

 

दें सहारा मुझे वो मिला घर नहीं

शहर में कोई अपना रहबर नहीं

 

कर लिया प्यार का फ़ूल उसनें क़बूल

आज उन हाथों में देखो पत्थर नहीं

 

क़त्ल कर देता मैं उस दग़ाबाज का

हाथ में मेरे ही वरना ख़ंजर नहीं

 

हर तरफ़ नफ़रतों की बहारें खिली

प्यार के ही नज़र आते मंजर नहीं

 

फ़ोन मैंनें नहीं है चुराया तेरा

झूठा इल्जाम यूं मत लगा सर नहीं

 

तोड़कर प्यार का रिश्ता आज़म से मगर

मत आंखें  कर तू यूं अश्कों में तर नहीं

 

 

✏

शायर: आज़म नैय्यर

(सहारनपुर )

यह भी पढ़ें : 

ये है कैसी मजबूरी है

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *