शिखा खुराना जी की कविताएँ | Shikha Khurana Hindi Poetry
शीत ऋतु
हाड़ कंपकंपाती सर्दी का आगाज़ हो रहा है।
किटकिटाते दांतों को ठंड का अंदाज हो रहा है।
सर्दी का कहर बरपा है शीत लहर बनकर।
कोहरे की चादर बिछी है हवा में ज़हर बनकर।
बूंदें ओस की शबनम के मोती सी गिर रही हैं पतों पर।
शीत का आगमन शारदीय फूल गिरा रहा है छतों पर।
कुनमुनाने लगें हैं रजाई में हम, सवेरा हो जाने के बाद।
आलस में पड़े रहते हैं नींद भी खुल जाने के बाद।
गुनगुनाती धूप सहलाने लगी है तन बदन को।
गर्म चाय की प्याली सुकून पहुंचा रही अंतर्मन को।
सूर्य देव भी बड़ी मिन्नत से दर्शन दे रहे हैं।
हाथ पैर बर्फ की ठिठुरन से हो रहे हैं।
बेहतरीन मौसमी बहार लगी है खान पान की।
रंगत निखरने लगी है बाहर आकर स्वेटर शाल की।
खुला आसमान भी किसी गरीब का आसरा है बना।
अलाव का ताप ही उनके जीवन का हौंसला है बना।
फुर्सत के पल
तमाम लोगों का हाल जाना, तमाम लोगों से बात की।
कभी फुर्सत ही ना मिली, खुद से मुलाकात की।
गुज़र गए कितने बरस यूं ही मसरूफियत में।
ना फुर्सत ही मिली कभी, ना तुम्हे फुर्सत का ख्याल आया।
बैठे हो आज फुर्सत से।
तुम्हारी फुर्सत के इंतजार में।
फुर्सत मिली है तो रंजिशे भुला दो।
फुर्सत मिली है तो वादे निभा दो।
फुर्सत मिली है तो किस्से सुना दो।
फुर्सत मिली है तो खुद से मिला दो।
मोहलत तो मिली, जिंदगी की होड़ से तुम्हे।
फुर्सत तो मिली, काम की भाग दौड़ से तुम्हे।
उलझनों से रवा हुए तो तुम।
मसलों से रिहा हुए तो तुम।
चलो अब फुर्सत के पलों को बिताने का सामान कर लें।
सपने जो अब तक देखें ही नहीं, उन्हें पूरा करने का इंतजाम कर लें।
अपने ख्वाबों को उड़ान भर लेने देते हैं अब।
अपने हौसलों को तूफान कर लेने देते हैं अब।
हमारी सादगी ही पहचान है हमारी
इस सादगी में नापी है मुट्ठी भर ज़मीन हमने
अपनी शरारतों को उड़ान भर लेने देते हैं अब
ये ज़िंदगी है के मौत का हमसाया है
ये ज़िंदगी है के मौत का हमसाया है।
खुशी मिली नहीं जितना दर्द समाया है।
अंधेरों की थाह में भटकते रहे उम्र भर यूं ही।
तब कहीं जाकर कविता ने ठौर पाया है।
जर्द चेहरों पर था खौफ़, बिखर जाने का।
तिसपर डर को समेट रूह में बसाया है।
रोशन कर ना सका दिन को मेरे जब उजाला।
बांह रात की तब थामकर दिन बिताया है।
उलझनों से जब भी कभी सुलह करनी चाही।
उलझनों ने और हमें खुद में उलझाया है।
समय को रोकने को आवाज़ भी लगाई हमने।
रुका कहां अपने पीछे हमें भगाया है।
खत्म कहां हुए अभी तेरे इम्तिहान ‘शिखा’।
नया सफर नयी मुश्किलें ले आया है।
इसमें भी कुछ भलाई थी
( ग़ज़ल )
बुराई को मिली दुआ कि इसमें भी कुछ भलाई थी।
बुराई से बुरा कुछ नहीं, ये बात किसने फैलाई थी।
चन्द गलतियां क्या हुईं हमसे गुनहगार हो गए हम,
महोब्बत के रिश्तों में ये आग किसने लगाई थी।
महसूस तो हुआ होगा दर्द तुम्हें भी उस तमाचे का,
बेशक चेहरे ने हमारे ही वो मार खाई थी।
तड़प रहे हो जिनके लिए वो तो अब नहीं आएंगे,
काश पीछे मुड़के देख लेते जब आवाज उसने लगाई थी
आईना नहीं दिखाता, पीठ के निशान कभी,
वो ज़ख्म दिख जाते तो होती तेरी ही रुसवाई थी
नज़रों से ग़िर जाओगे ये तो नहीं सोचा था कभी,
पलकों पे सजाने की हमने तो दी दुहाई थी।
हर सवाल तो फेंका गया महफ़िल में हमपर,
जवाब देने की मगर कर दी गई मनाही थी।
ये तो अच्छा हुआ कि रुखसत हो गये जहां से हम,
वरना तुम ही रहते खुदा हमारे, और रहती तुम्हारी खुदाई थी ।
लबों तक रह गईं थीं जो आते आते
लबों तक रह गईं थीं जो आते आते।
बहुत याद आती हैं वो अधूरी बातें ।
काश सुन लेते जो आंखों से कहना चाहा।
खामोशी में दिलों की दास्तां सुनाते।
रूठने वालों को मोहब्बत से मनाते।
ख्वाहिशें अपनी कहकर बताते।
उनके दिल को भी परखते रुककर।
आवाज़ देकर रोक लेते उनको बुलाते।
वादे जो छूट गए थे निभाते निभाते।
उनपर अपनी सारी खुशियां लुटाते।
हम भी जां निसार करते उनपर।
वो भी हमारे हो ही जाते।
अपने ग़म से कभी उनको रुलाते।
कभी देकर हंसी अपनी हंसाते।
दिल में रखकर तस्वीर उनकी।
वफ़ा को आईना दिखाते।
इतरा रही हूं जबसे कोई मुझे पहचान रहा है।
( पूर्णिका )
इतरा रही हूं जबसे कोई मुझे पहचान रहा है।
लगता है कनख़ियो से कोई मुझे जान रहा है।
तुमने कहा है कुछ धीरे से कानों में मेरे आकर।
यां फिर तेरी फुसफुसाहटों का हमें गुमान रहा है।
तय नहीं है कि तुम गुज़रे हो अभी अभी यहां से।
यां सरसराती सी हवा का ये कोई पैगाम रहा है।
ज़ाहिर नहीं हुआ कि तुम्हारे बदन की थी वो खुशबू ।
यां हवा का फूलों संग साजिश ए अंजाम रहा है।
खिलखिलाती हुई हंसी थी वो तुम्हारी ना जाने।
यां पत्तियों का सरसराता सा कोई तूफान रहा है।
मफ्तूनी सा गीत गुनगुनाते हुए तुम चले आए हो यहां।
यां पंछियों का चहचहाता सा गान रहा है।
सिहरन सी दौड़ गई है जो, ये तेरे छूने का असर हुआ है।
यां पानियों को हलचल का कोई अरमान रआ है।
बेसाख्ता बिखर रही है ‘शिखा’ पहलू में इश्क के।
यां इश्क ए शायरी में ही मौत का सामान रहा है।
अंधकार से उत्पन्न हुई एक किरण छितराई है
( पूर्णिका )
अंधकार से उत्पन्न हुई एक किरण छितराई है
आकाश की गहराई से निकलकर आई है।
शिद्दत से प्रयास जारी रखे हुए है।
आशा की रोशनी संग मुसकाई है ।
ओस के सुखद स्पर्श से लबरेज हुई।
पंछियों के कलरव सी मन को भाई है।
सुबह की मंद मंद चल रही हवा।
पी के देस की महक ले आई है ।।
कल की थकान को अलविदा कहती है।
नई उमंग से फिर जोश भर लाई है।
आज की उनींदीं सी रूहों को जगाती।
नई उम्मीदों की डोर बांधकर लाई है ।।
ऊंचाईयां नापने वालों को आकाश कहां है चुनौती।
आसमान से धरती तक नज़रें उसने बिछाई हैं।
सुकून को नहीं तनाव कोई है, शैतान को है भिड़ने का शौक।
कांटों की चुभन से संघर्ष कर गुलाबों की क्यारी लगाई है।
चढ़ते सूरज को सलाम मिलते हैं, इसमें कोई शुबा नहीं।
हर कदम प्रयास से विजय पताका लहराई है।
जीने के सबक बिखरे हैं हर कदम पर ‘शिखा’।
हर जंग में तैयार रहने की सिखलाई है।
नई सुबह करने आई है मन को भाव विभोर।
( पूर्णिका )
नई सुबह करने आई है मन को भाव विभोर।
नई उड़ान भरने को दिल हुआ है सराबोर।
नए सूरज संग प्रकाश फैलाने दौड़ चला है मन।
छट गया है कड़वी यादों का अंधेरा घनघोर।
नए आभास शांत जीवन को कर रहे हैं साकार।
दूर छोड़ आए हैं कहीं नकारात्मकता का शोर।
नई सुखद हवाओं ने डाला हैं डेरा मन के आंगन में।
गुदगुदाने लगी है नींदों को आशा भरी नई भोर।
नई चाल है आज जवां जवां सी लरजती हुई सी मेरी।
नाच उठा है पंखों को फैला कर मन का मोर।
नए अहसास जागें हैं नए उत्साह को लेकर।
हौसलों को हवा दे रहे हैं उमंगों के नए दौर।
नई राहें उन्नत हुई है नई दिशाओं के संग।
रिश्तों को मजबूत बना रही है उल्लास की नई डोर।
नए आयाम मिले हैं जीवन को सुदूर ऊंचाईयों पर।
उन्मुक्त गगन में उड़ने लगी है ‘शिखा’ नई मंजिल की ओर।
खुद को क्यूं उलझा रखा है
खुद को क्यूं उलझा रखा है बेमतलब दुनियादारी से।
रिहा क्यूं नहीं करते खुद को बन्दिशों की सरदारी से।
सवेरे से ढूंढने निकलते हो सबकी खुशियों का सामान।
ख्वाहिशें पूरी कर नहीं पाते फिर भी तुम खरीदारी से।
ख्वाबों पर अपने पैबंद लगाकर जी रहे हो।
झिकझिक सी ये जिंदगी, इतनी समझदारी से।
आईने में खुद को भी पहचानने की कोशिश तो करो कभी ।
जिंदगी का लेखा समझते लगते हो व्यापारी से।
ये चैन,आराम, उल्लास पागलपन,जीवन के हमराह हैं ।
इनको भी आज़माओ कभी निकल कर चारदीवारी से।
सबको सिखाने का जिम्मा सिर्फ तुम्हारा नहीं है, ये मान लो।
परिंदा बन उड़ने लगो बेफिक्र होकर पहरेदारी से।
जीने को जी तो चाहता है तुम्हारा भी बिंदास ‘शिखा’।
झूठ नहीं है ना ये, सच कहना ईमानदारी से।
हम भारत के लोग
हम भारत के लोग संकल्पित हैं,
अपने गणराज्य की सुरक्षा के लिए।
हम भारत के लोग सुनिश्चित हैं,
संपूर्ण प्रभुत्व की सम्पन्नता के लिए।
हम भारत के लोग समर्पित हैं,
सम्पन्न समाज की प्रतिष्ठा के लिए।
हम भारत के लोग आत्मार्पित हैं,
राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए।
हम भारत के लोग अंगीकृत हैं,
धर्म और विचारों की स्वतंत्रता के लिए।
हम भारत के लोग अधिनियमित हैं,
न्याय और विश्वास की समता के लिए।
हम भारत के लोग पारंगित हैं,
आपसी प्रेम और सद्भाव की बंधुता के लिए।
हम भारत के लोग प्रजातांत्रिक हैं,
अपने अधिकारों और कर्तव्यों की संप्रभुता के लिए।
हम भारत के लोग अंगीकृत हैं,
अपनी स्वतंत्रता और समानता के लिए।
हम भारत के लोग पंथनिरपेक्ष हैं,
अपने गणराज्य की लोकतांत्रिकता के लिए।
हम भारत के लोग सुरक्षित हैं,
अपने नागरिकता के लिए।
हम भारत के लोग समाहित हैं,
अपने राष्ट्र की गरिमा के लिए।
हम भारत के लोग
हम भारत के लोग
भूल बैठे थे जिन्हें हम, फिर दिल लगाने आ गए : पूर्णिका
भूल बैठे थे जिन्हें हम, फिर दिल लगाने आ गए।
बीते थे मुश्किल से जो, वापस ज़माने आ गए।
अब रौनकें नहीं रहीं, उनसे हमारी ज़िंदगी में।
रोशनी लेकर क्यों दिल की शमा जलाने आ गए।
कुछ याद नहीं वो कौन थे, रिश्ता उनसे क्या रहा।
जो रह गया ना बीच अपने, उसको निभाने आ गए।
कोई रंग उनका भाता नहीं अब, स्याह हुए हैं जिनके दिल।
सुर्ख रंग था जो लहू का, उसको बहाने आ गए।
संभालेंगे वो क्या हमें, जो खुद नशे में चूर हैं।
रिश्तों की नाज़ुक डोर से कनकौए उड़ाने आ गए।
खामोशी से खुद को लेकर, दूर उनसे हो गए।
नज़दीकियों का फिर भला क्यों शोर मचाने आ गए।
छुपा लिए थे जो ज़ख्म दिल में, देखें ना खुद भी ‘शिखा’।
टीस उन ज़ख्मों को देकर, तमाशा बनाने आ गए।
ना जड़, ना टहनी, ना तना, इक पत्ता बस कोई चीन्हता : पूर्णिका
ना जड़, ना टहनी, ना तना, इक पत्ता बस कोई चीन्हता।
बिखरूं तो ना समेटे कोई, नहीं मुझको है कोई बीनता।
अपनों से विमुख होकर मन भरकर रोया था।
विरह की वेदना में बह गया जो, ज़ख्म था कोई चीखता।
सुना है बहुत मशहूर हुआ जिसने बोया था दरख़्त को।
उजड़ गया फिर हुआ पुराना, रही ना कोई नवीनता।
आंधियां ले गई उड़ाकर कहां, किसे थी ये खबर।
नये रूप में फिर खिला गई, प्रकृति की कोई प्रवीणता।
सबसे ऊंची डाल को छूने की आरज़ू रही होगी।
मिट्टी में रुंधी मिली उस शख़्स की कोई हीनता।
चित लगाकर बैठे रहे जो वैराग्य की छांव में यहां।
मिली ना ह्रदय के अंतस को फिर भी कोई तल्लीनता।
महानता से उनकी मुलाकात होती रही अक्सर।
हम में ही ढूंढ रहे थे जो शिद्दत से कोई दीनता।
रुक गये होते हम भी तो उन तक ही पहुंच कर।
हाथ पकड़ कर वक्त पर अगर हमें ना कोई खींचता।
अपनी कहानी की किरदार भी अगर खुद ही हुई होती ‘शिखा’ ।
ख्वाहिशों के शोर में बर्बादी का ढोल ना कोई पीटता।
बचपन
ऐ बचपन ले चल अपनी गलियों में फिर मुझे।
ऐ बचपन मिला दें अपनी खुशियों से फिर मुझे।
ऐ बचपन चल गुड्डे-गुड़ियों से खेलें कहीं।
ऐ बचपन चल लगा लें मस्तियों के रेले कहीं।
ऐ बचपन चल छुक छुक करती गाड़ी बन जाएं।
ऐ बचपन चल सयानापन छोड़ अनाड़ी बन जाएं।
ऐ बचपन चल अपनी मासूमियत बिखेरते हैं।
ऐ बचपन चल छुपकर आंख मिचौली खे़लते हैं।
ऐ बचपन चल गले लगकर हंसते हैं,
खिलखिलाते हैं।
ऐ बचपन चल झूठ-मूठ रूठते हैं, मनाते हैं।
ऐ बचपन चल मां की गोद में सिर रखकर सो जाते हैं।
ऐ बचपन चल हम वयस्क भी फिर से बच्चे हो जाते हैं।
ये ज़िंदगी
रोज़ हमको कितना आज़माती है ये ज़िंदगी।
इक पल की खुशियां देकर रूठ जाती है ये ज़िंदगी।
सवालों की लड़ियां बनी रहतीं हैं मस्तिष्क में।
जवाबों को इतना क्यों उलझाती है ये ज़िंदगी।
नाउम्मीदी ने जब मौत से अब कर ही ली है दोस्ती।
जीने की फिर उम्मीद क्यों बंधाती है ये ज़िंदगी।
हर सांस को आखिरी मान कर जी रहे हैं अब तो,
इतना भी अब हमको क्यों डराती है ये ज़िंदगी।
जुड़ गईं है कई ज़िन्दगियां जो ज़िंदगी से अपनी।
उनपर भी अपना कहर क्यों ढ़ाती है ये ज़िंदगी।
समय, हर घड़ी जो सरक रहा है, रुकता हुआ सा।
रफ़्तार इसकी क्यों नहीं बढ़ाती है ये ज़िंदगी।
जिस रंग में चाहे, उसी में रंग देती है हमें ये।
हर दिन फिर नया रंग क्यों दिखाती है ये ज़िंदगी।
अब कर भी दे मौत के हवाले अपने हाथों ‘शिखा’ को।
हर पल हमें मौत से क्यों मिलवाती है ये ज़िंदगी।
पूर्णिका
स्पर्श पिया का मन रंग गया।
रुह रंग गया, अंतर रंग बन गया।।
आज तुम्हारा रंग सांवरे।
तन मन संग अंतस रंग बन गया।।
तेरा मिल जाना यूं मुझमें।
हमारे मिलन का अंतरंग बन गया।।
बुझी सी हयात महक उठी फिर।
धड़कन से सांसों का संग बन गया।।
रंग मेरा धुलकर जो बिखरा तुझपर।
तूं मेरी खुशियों की तरंग बन गया।।
तेरे रंग में रंगकर रंगीन हुई मैं।
मेरे रंग में खोकर तूं बेरंग बन गया।।
इक दूजे के सांचे में यूं ढले हम।
तूं मेरे जीने का ढंग बन गया।।
सब उलझनें सुलझती चलीं गईं।
जीवन खुशियों की पतंग बन गया।।
पिया रंग के रंग जो रंगी मैं।
मन मेरा पागल मलंग बन गया।।
फिर खिलूंगा शाख पर आबाद हो जाऊंगा मैं
फिर खिलूंगा शाख पर आबाद हो जाऊंगा मैं।
मिट्टी में मिला तो बूटों की खाद हो जाऊंगा मैं।
तेरी महफ़िल में आकर शादाब हो जाऊंगा मैं।
दीदार ना तेरा हो सका तो बर्बाद हो जाऊंगा मैं।
दुआओं में अपनी मुझे भी शामिल तूं कर लेना।
दुआ पा जाने की वरना फरियाद हो जाऊंगा मैं।
भूल जाना मुझे भी कभी मुमकिन नहीं होगा।
भूल ना पाए कभी जिसे वो याद हो जाऊंगा मैं।
बांध लें दामन से तूं अपने मुझे तूं उम्र की तरह।
अपनी दराज़ ए उम्र से आज़ाद हो जाऊंगा मैं।
बहारें दे सकूं तुझको यही शिद्दत रही मेरी।
खुशी तुझे अपनी देकर फरहाद हो जाऊंगा मैं।
जो कहा हो शेर कोई कभी तूने मुझ गरीब पर।
ग़ज़ल लिखकर उसपर तेरी दाद हो जाऊंगा मैं।
खुदा करे तुझे कभी ना हो मेरी ज़रूरत।
बिना कहे फिर भी तेरी इमदाद हो जाऊंगा मैं।
मुकर्रर कर तूं भी मुझे कभी शायरी में अपनी।
पेश़ होकर तेरी खिदमत में इरशाद हो जाऊंगा मैं।
धान की फसल
खेतों में धान लहलहाया है
कृषक का मन हर्षाया है।
जी जान से की थी मेहनत।
उसका ही ये फल पाया है।
हवाएं सुगंधित होने लगी हैं।
धान की खुशबू में डुबोने लगी हैं
फिजाएं मचल उठी हैं लहराकर।
खेत खलिहान की मुंडेर पर आकर।
श्वेत मोतियों से धान के दाने।
निकले हैं किसान का मन लुभाने।
सज संवर कर ज्यूं खड़ी है कोई नार।
धरती ने यूं आज किया है श्रृंगार।
किसान का मन आनंदित हुआ है।
पकती फसल ने उमंगों को छुआ है।
झूम रहा है फसलों संग कृत्य कर रहा है।
मन मयूर भी ठंडी बयार में नृत्य कर रहा है।
वो दिल में उतरते चले गए
निगाहों से बेसाख्ता वो दिल में उतरते चले गए।
ठहरे लम्हों की दास्तां से हम गुज़रते चले गए।
मोहब्बत ने कभी खाई थी जिस राह पर ठोकर।
उस राह की खामोशियों में बिखरते चले गए।
दूर निगाहों से वो कभी थे ही नहीं हमारी।
पास आकर ही उनके हम संवरते चले गए।
कोई हसरत ना रही बाकी दिल ए गुलिस्तां की।
मोहब्बत के आशियां में हम निखरते चले गए।
हसीन हुई मेरे ख्वाबों की दुनिया भी उन्हीं से।
पहलू में जन्नत ए इश्क के फिसलते चले गए।
शमा बनकर रोशन किये उनकी महफ़िल के चिराग़।
परवाना बनकर जो खुद ही पिघलते चले गए।
सफ़ा ए इश्क की दास्तान ख्याल ना हो सकी।
दर्द ए दिल मीठा सा वो मसलते चले गए।
यकीन हूबहू रहा उनपर पहले ही की तरह शिखा।
हर बार की तरह वो फिर से बदलते चले गए।
आज गजब की बेपरवाही
आज गजब की बेपरवाही है मेरे किरदार में।
ताउम्र भटका किए थे हम जिसके इंतज़ार में।
वो दौलत ए जहां गंवाकर भी सोचते हैं हम।
कितना सुकून पाया है हमने इस असार में।
कोई खिड़की कोई झरोखा तो होता उस दीवार में
आबोहवा से मुलाकात होती झांक लेते दिल के ब्यार में।
मिलते ना थे दिल जहां, मौसम ए बहार में।
कीमत ना अपनी लगी उस महोब्बत के बाज़ार में।
फुर्सत किसे जो देखे दिये को सितारों के अंबार में।
रोशनी उसकी खो गई थी कहीं चांद के दीदार में।
मुझे भी कोई बचा ना सका डूबने से उस में।
खूबसूरत भंवर जो था उसके रुखसार में।
खुद को उसने यूं बचा लिया हर इल्ज़ाम में।
कोई निशान नहीं छोड़ा कत्ल के औज़ार में।
ये औरतें
औरतें ओसारे की चारदीवारी बन जाती हैं
औरतें अपंग रिश्तों की सवारी बन जाती हैं।
औरतें गुरबतों को संभालने में माहिर हो जाती हैं।
औरतें डूबती हुई कश्तियों की साहिल हो जाती हैं।
औरतें सबकी ख्वाहिशों का अरमान हो जाती हैं।
औरतें सबकी जरुरतों का सामान हो जाती हैं।
औरतें ज़मीं पर बिछे सुंदर कालीन सी हो जाती हैं।
औरतें कदमों की गर्त में लिपटी जमीन सी हो जाती हैं।
औरतें खुदगर्ज़ी में इस्तेमाल की गई गर्ज़ हो जाती हैं।
औरतें हर तोहमत का लाइलाज़ मर्ज़ हो जाती हैं।
औरतें दुनियादारी निभाने की रीत बन जाती हैं।
औरतें सबकुछ हारकर भी सबकी जीत बन जाती हैं।
औरतें बिखराव को समेटने के काबिल हो जाती हैं।
औरतें उलझनों को सुलझाने में मुकाबिल हो जाती हैं।
औरतें पागलखानों को घर कर देती हैं।
औरतें बेजान लाशों को अमर कर देती हैं।
आंख का आंसू हूं मैं।
आंख का आंसू हूं मैं।
शबनम का कतरा नहीं हूं।
पलकों से टपका हूं मैं।
फूलों पर गिरा नहीं हूं।
शाम से चला हूं मैं।
सुबह से मिला नहीं हूं।
सांसों से बिछड़ा हूं मैं।
जिंदा हूं अभी मरा नहीं हूं।
थक के टूट गया हूं मैं।
पर टूट के भी बिखरा नहीं हूं।
सकारात्मकता
नई सुबह करने आई है मन को भाव विभोर।
नई उड़ान भरने को दिल हुआ है सराबोर।
नए सूरज संग प्रकाश फैलाने दौड़ चला है मन।
छट गया है कड़वी यादों का अंधेरा घनघोर।
नए आभास शांत जीवन को कर रहे हैं साकार।
दूर छोड़ आए हैं कहीं नकारात्मकता का शोर।
नई सुखद हवाओं ने डाला हैं डेरा मन के आंगन में।
गुदगुदाने लगी है नींदों को आशा भरी नई भोर।
नई चाल है आज जवां जवां सी लरजती हुई सी मेरी।
नाच उठा है पंखों को फैला कर मन का मोर।
नए अहसास जागें हैं नए उत्साह को लेकर।
हौसलों को हवा दे रहे हैं उमंगों के नए दौर।
नई राहें उन्नत हुई है नई दिशाओं के संग।
रिश्तों को मजबूत बना रही है उल्लास की नई डोर।
नए आयाम मिले हैं जीवन को सुदूर ऊंचाईयों पर।
उन्मुक्त गगन में उड़ने लगे हैं अपनी नई मंजिल की ओर।
खूबसूरत
सूरत से करते हैं जो प्रेम पूछना ज़रा उनसे कभी।
ख्याल रखने वाले क्या खूबसूरत हुए हैं कभी।
बिगड़ी है सूरत गम नहीं, तेरी दवा तो बन गये हैं।
गांठों में भी तेरी सलामती की दुआ तो बन गये हैं।
खूबसूरत थीं वो खुरदरी हथेलियां मां की।
उठती थीं जो हर लम्हा दुआओं में खुदा की।
वो झुर्रियां भरा चेहरा कभी हसीन फूल था खिला।
अनुभवों की आंधियों से खूबसूरत सबक था मिला।
खूबसूरत आंखों ने जो हसीन ख्वाब देखे थे कभी।
जलती रही आंखें पर ख्वाबों को ना जला सकीं।
सारे जहान में चर्चे हैं हुए उस खूबसूरत ताज के।
फ़ना मोहब्बत दिखी कहीं संगमरमर में तराश के।
बरखा से मिलन को नाचता मयूर खूबसूरत लगे।
मन में वियोग की व्यथा उसकी कौन सुने।
शुभ दीपावली
हर घर में जगमगाती रहें रोशनियां।
चिराग जलते रहें, झिलमिलाती रहें बिजलियां।
बताशों और खीलों की खिलखिलाहट बिखरे।
खिलौनों और तस्वीरों की हों मस्तियां।
रह ना जाए कहीं अंधेरा, कोई घर सूना ना हो।
बिखरे फूलों की, झूलों की अठखेलियां।
हर घर में मां लक्ष्मी का आह्वान हो,
फूलों से सजी रहें सुंदर पूजा की थालियां।
रंगों की चमक ना कभी फीकी पड़े।
हर आंगन में सजती रहें रंगोलियां।
बर्फी, जलेबी, लड्डू मुंह में घुलते रहें।
मिठास घोलती रहें दिलों में दीवालियां।
वंदनवार हर चौखट की शोभा बढ़ाते रहें
झूमरों में दिखती रहे नटखट सरगोशियां।
गले लगकर बांटें दिवाली की उमंग।
दिलों में आशाओं की जलाएं नई रोशनियां।
एक दिए का जीवन
खुद को जलाकर तेरा घर रोशन है किया।
उजाले बांटता रहा मिट्टी का छोटा सा दिया।
तिल तिल अपनी बाती को जलते हुए देखता है।
अपनी हस्ती को वापिस मिट्टी में ही रौंदता है।
दिये ने खुश होकर दी है अपनों की कुर्बानी।
सबके लिए जगमगा कर मनायी है दीवाली।
तेल ने ही दिये संग उल्फत का निभाया नाता।
आखिरी बूंद तक शिद्दत से जलता ही है जाता।
सबकी कालिख अपने सिर लेकर उनके घर उजले है करता।
खुद को स्वाहा करके सबका जीवन खुशियों से है भरता।
दिये ने लुटाना ही सीखा है रोशनियों का खजाना।
दिये का जीवन है बस औरों के ही काम आना।
मिट्टी में मिलकर फिर से अपनी हस्ती है बनाता।
जलकर मिट जाने को फिर से मिट्टी का दिया बन जाता।
बहार देखते रहे
हरसु राहों में बहार देखते रहे।
हाथों की लकीरों में प्यार देखते रहे।
कोई साथी ना सनम मिला जहां में।
कारवां गुज़र जाने पर गुबार देखते रहे।
पलकों पर बूंदों का सिंगार देखते रहे
गीतों में आहों का आजार देखते रहे।
रुकते रहे कदम चलते हुए कभी तो।
दूर मंज़िल के कभी कगार देखते रहे।
मोहब्बत का सजा बाज़ार देखते रहे।
दुःखों का लगा अंबार देखते रहे।
खुशी ढूंढते रहे गर्त में जाकर कहीं।
स्याह होता हुआ वो अंगार देखते रहे।
नामुराद ख्वाहिशों की कतार देखते रहे।
बेसबब ख्वाबों की दरकार देखते रहे।
आरज़ूएं भी शिखा तोड़ने लगीं हैं दम अब तो।
नाउम्मीदी की उम्मीदों से तकरार देखते रहे।
एक प्रार्थना
वाणी मधुर मीठी वीणा की झंकार रहे।
ज्ञान की वृद्धि हो, सुबुद्धि भी अपार रहे।
वंदना नित्य करें ह्रदय से नतमस्तक हो।
कृपा बनी रहे मां सरस्वती का आभार रहे।
स्नेह वंदन नित बढ़े हर जीव में, हर प्राणी में।
स्नेह ह्रदय पावन करे मिले जो मधुर वाणी में।
स्नेह पाकर प्रफुल्लित हो जाए हर प्राणी का मन।
स्नेह निर्मल भाव जगाए ज्यों प्यासे को पानी में।
निर्मल भाव रहें जीवन में निर्मलता से निर्वाह रहे।
शांति, सौम्यता, शीतलता का जीवन में प्रवाह रहे।
अपार प्रेम और स्नेह, भेंट करें हर जन को।
श्रद्धा से सर झुक जाए,भक्ति भाव अथाह रहे।
बुराई का अंत हो नित, भलाई की हो नई शुरुआत।
अंहकार को निषेध मिले, प्रेम का हो आगाज़।
सच्चाई की पवित्रता स्थापित रहे जगत में।
भक्तिभाव संग अनुराग की हर दिल में हो बरसात।
मेरा अनमोल हिस्सा
तेरी खुशी से ही नहीं, तेरे ग़म से भी रिश्ता है मेरा।
तूं जिंदगी का एक अनमोल हिस्सा है मेरा।
मेरी महोब्बत सिर्फ लफ़्ज़ों की मोहताज नहीं
तेरी रूह से रूह का रिश्ता है मेरा।
एक जैसे तो क्या, एक ही हैं हम दोनों,
मेरे गुस्से को गुस्सा तेरा और तेरे प्यार को प्यार ही जचता है मेरा।
तुमसे शिकायत भी करते है, उम्मीदें भी तेरे साथ हैं मेरी,
हर हालात में ख्याल तूं ही तो रखता है मेरा।
हाथ थामे रखना, दुनिया में भीड़ भारी है।
खो ना जाऊं कहीं ये जिम्मेदारी तुम्हारी है।
जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया भी है हमें
बहुत हंसाया और थोड़ा रूलाया भी है हमें।
खुश रहकर जिंदगी की हर रीत है निभानी
चाहे होंठों की मुस्कान हो, चाहे आंखों का पानी।
चलो अब फुर्सत के पलों को बिताने का सामान कर लेते हैं
सपने जो अब तक देखें ही नहीं, उन्हें पूरा करने का इंतजाम कर लेते हैं।
धरती बनी है दुल्हन आज
धरती बनी है दुल्हन आज, सुर्ख रंग हो आया है।
अंबर का हर पुंज आकर धरती की बाहों में समाया है।
आज हर सुहागन की हथेली को मेंहदी ने सजाया है।
आज हर ब्याहता के माथे पर सिंदूरी रंग छाया है।
रंग बिरंगी चूड़ियों से सजी हैं सुंदर कलाइयां।
आज ना सोते को जगाएं, ना उठाएं सिलाइयां।
पति की दीर्घायु के लिए व्रत कठोर करे निर्जला।
पिया के हाथों जल पीकर व्रत खोलती,चांद को अर्क चढ़ा।
सज संवर कर व्रत कथा करे, सखियों संग थाली घुमा।
भरपूर प्यार पाने की चाहत में पिया मन भाती विवाहिता।
चांद के निकलने को बेकरार तो हो जाता है मन।
पिया के संग चांद के इंतज़ार में खो जाता है मन।
पिया के दरस कर छलनी में, नैनन आरती उतारूं मैं।
चांद को देखूं अर्क चढ़ाकर साजन की नज़र बुहारूं मैं।
बरस बाद चांद तेरा दीदार इतना मुझे भाया है।
तेरी नज़रों में मुझको मेरा चांद नज़र आया है।
शरद पूर्णिमा/महारास
रथ पर सवार तारों की बारात सजी है आज।
नभ से अमृत की वर्षा होने लगी है आज।
उजला उजला श्वेतांबर गगन हुआ है आज।
वृक्षों ने पुष्प बिछाकर धरा को सजाया है आज।
प्रकृति ने मचलकर जैसे ली अंगड़ाई है।
कली कली चटककर धरती पर गिर आई है।
धरती अंबर का मधुर मिलन समारोह हुआ है।
गीत मधुर गाने को मन पुलकित हुआ है।
शरद पूर्णिमा की शीतल सुहानी रात है आई।
तन मन प्रफुल्लित, ह्रदय तरंगिणी देती है सुनाई।
आतुर चांद निकट आ पहुंचा है अपनी पृथ्वी से मिलने।
पृथ्वी दुल्हन सा श्रृंगार कर, बिछा रही फूलों के झरने।
शरद पूर्णिमा को कृष्ण ने किया गोपियों संग महारास।
आत्मा का परमात्मा से सुखद मिलन हुआ था आज।
शरद पूर्णिमा पर महालक्ष्मी सबपर अपना आशीष है धरती।
यश, उन्नति और वैभव से सब भक्तो को सम्मानित है करती।
चांद की शीतलता में खीर बनाकर रखी जाती।
चांदनी प्रसाद से आरोग्य होती अमृत रस बरसाती।
धरा का दर्द
धरा का दर्द समझ लें अब तो तूं ऐ मानव।
पर्यावरण नष्ट कर रहा प्रदूषण का ये दानव।
प्रदूषित होता जल हमारे कर्मों का परिणाम है।
हर दिन हलाहल हो रहा हरा भरा पर्यावरण है।
खूबसूरत प्लास्टिक की रंगत ने ये असर किया है।
घर घर में भर भर कर हर किसी को कैंसर दिया है।
प्रकृति से हम क्यों नाता तोडते जा रहें हैं।
हवाओं में ज़हर हम क्यों घोलते जा रहें हैं।
सांस नहीं आने दे रहीं धुआं फेंकती ये गाडियां।
सूखे जंगल सी दिखने लगीं, हरी भरी पहाड़ियां।
आज हवा की कीमत ना समझी तो महंगी पड़ेगी इसकी फांस।
इक दिन बोतलों में बिकने लगेंगी मुफ़्त में पा रहे जो सांस।
चिड़िया का घर तोड़ कर महल अपना बना रहे हैं।
अपनी चरित्र से हम कितने नीचे गिरते जा रहे हैं।
संभलो, रुको, पेड़ लगाओ, प्लास्टिक से निजात पाओ।
पैदल चलो, साइकिल चलाओ, सांसों को दुरूस्त बनाओ।
प्रसूता
रोम रोम ने खिल खिल कर जीवन को उपहार दिया है।
मां शब्द ने नारी का सौंदर्य और निखार दिया है।
कोख पर रक्त चिन्हों ने जीवन को उभार दिया है।
शिशु जन्म ने मां की सत्ता का नवजीवन संचार किया है।
कोमल स्पर्श की पहली अनुभूति ने मन के तारों को झंकृत किया है।
मधुर रुग्ण की पहली ध्वनि संग रग रग ने ज्यूं नृत्य किया है।
पीड़ा सारी हर कर ले गई है वो तन मन की।
पहली तृप्त बूंद सुधा अमृत सी वो स्तन की।
स्वप्न सा सुनहरा नवजात, मुस्कान उसकी ज्यूं नन्हीं कली।
कोमल उंगलियों से कसकर थाम रहा वो मेरी ऊंगली।
छूकर देखती हूं बार बार, अचंभित हूं, अपने सृजन पर।
अनंत उत्साह से काबू नहीं कर पा रही अपने मन पर।
उत्पत्ति के नये ज्ञान से अनुग्रहित हुई हूं मैं सृष्टि सी।
बरस रही ह्रदय अंतस से निश्चल ममता वृष्टि सी।
बह रहा नैनों से भावनाओं का समंदर अथाह।
जननी, माता, धात्री, अम्बा आज बनी हूं मैं मां।
अमावस की रात
अमावस की रात में बहुत दूर तक टिमटिमाते हैं आकाश में तारे ।
स्वर्ग की दिशाओं का अहसास कराते ऊंचाई से दिखते ये नज़ारे।
जीवन में ऊंचाईयों की चुनौतियां, ध्रुव तारे सी
चमक रही हैं।
कढ़ाई का घूंघट ओढ़े चेहरे पर रात, सांत्वना में छिप रही है।
स्वर्गीय सितारों के दिव्य द्वारों से हमारे पूर्वज देख रहे हैं।
स्वर्ग के स्थलीय भ्रमण का आनन्द लेते खेल रहे हैं।
रहस्यमय अंधेरी रात में स्वर्ग के चमकते बिंदु दिख रहे हैं ।
बिना दिव्यदृष्टि के शून्यता में जीवन यात्रा कर रहे हैं।
ठंड की अनुभूति के साथ अकेले बैठना स्नान करने के समान है।
सुप्त जीवन को ऐसी एकल यात्रा का ही अरमान है।
क्षणिक झपकी से खो जाएगी, अद्भुत ये करिश्माई दुनिया।
जीवन को खोकर भी ना मिल पाएगी, खुशियों की ये स्थाई दुनिया।
मां की याद
कब सोचा था मैंने मुझे फिर आवाज़ नहीं दे पाएगी मां।
कब सोचा था मेरे चाहने पर भी मेरे संंग समय नहीं बिताएंगी मां।
कब सोचा था मुझे हर बात पर टोकने नहीं आएगी मां।
कब सोचा था मुझे सलाह देने से रुक जाएगी मां।
कब सोचा था उस घर में अब दिख नहीं पाएगी मां।
कब सोचा था सदा के लिए तेरी गोद खो जाएगी मां।
कब सोचा था छोड़कर और कहीं चली जाएगी मां।
कब सोचा था तेरे बिन दुनिया सूनी हो जाएगी मां।
कब सोचा था अपने कोमल स्पर्श के लिए तरसाएगी मां।
कब सोचा था मुझे अति दुःख में रोता छोड़ जाएगी मां।
कब सोचा था मुझे अब दुनियादारी नहीं सिखाएगी मां।
कब सोचा था तूं नहीं होगी और याद बहुत आएगी मां।
विजय दशमी
दस शीश रावण को सँहारा विजय दशमी पर राम ने।
आतंक से भू को उबारा विजय दशमी पर राम ने।
उजाला मुस्कराया मिटी गई थी अंधेरे की सत्ता।
विजय-ध्वज फहराया, मिली दनुजता पर मनुजता।
राम की जय का बजा तीनों लोक में था डंका।
ढही मीनार शोषण की मिल गई धूल में लंका।
नये युग में नई सभ्यता ने एक नूतन जन्म लिया।
जनता की पुकार पर जनार्दन के दौड़ आने का चलन हुआ।
दृढ़ संकल्प का साथ शक्ति हमेशा देती है।
शक्तिशाली के धनुष से विजय की धार बहती है।
कोई काट सका ना ये अटल सिद्धांत जग का।
शक्ति सपूतों का सत्य अभियान असत्य से नहीं कटता।
हुआ संग्राम भयंकर था राम का दशानन से।
शक्ति के साधक का युद्ध था पौरुष समर से।
हारी बुराई सच्चाई जीती, जगाने सबके मन में आस।
मन की बुराई को हरायें, विजय दशमी का मनाएं उल्लास।
खुद से खुद तक का सफर- एक ग़ज़ल
ढूंढे से भी जब ना तन्हाई में मिला सुकून कहीं।
खुद से मिलाने ले चला हमें महफ़िल का जुनून कहीं।
खुद से खुद तक पहुंचने की राह तो ढूंढ ली हमने।
शायरी में ढूंढ रहे हैं अब, खुद का मजमून कहीं।
दिल लगाने की सजा भी अब कुबूल कर लेते हैं, ऐ इश्क।
जीने नहीं देगा वरना, ये मोहब्बत का कानून कहीं।
ठहरे रहे अब तक हम, इक इशारे की उम्मीद में।
एड़ी उठा झांकते रहे, दिखा नहीं उनका नाखून कहीं।
क्यों हसरत लिए बैठे रहे, उनकी इक नज़र की हम।
मिला नहीं अहल ए जहां में, उनसा अफलातून कहीं।
बेवफाई ही ना हुई ख़्याल ए खाम हमीं से कभी।
ढूंढे ना मिलेगा सारे जहां में अब हमसा मामून कहीं।
लहू लुहान हुई हैं यहां, हमारे ख्वाबों की तदबीरें।
उनकी नज़र में नहीं ये, आरज़ूओं का खून कहीं।
जहां बादशाह अपने दिल का हर शख़्स ओ आम है शिखा।
तूं भी अपने दिल की है मल्लिका ए खातून कहीं।
देवी
देवी रूप है हर नारी का,पूजनीय है हर नारी।
नारी की अष्ट भुजाओं में रहती है शक्ति सारी।
घर-परिवार, बच्चे, पति, नारी की सब जिम्मेदारी।
नारी नारायणी ने ही गृहस्थी आपकी है संवारी।
सास-ससुर, मायका और नाते- रिश्तेदारी।
हर रिश्ता संभालने की जंग उसके लिए नहीं है भारी।
घर दफ्तर के काम काज को बदस्तूर रखती है जारी।
बच्चों की पढ़ाई, बड़ों की दवाई, सब संभाले ये बेचारी।
अपने सपने भूल गई वो, पूरी करती हर ख्वाहिश तुम्हारी।
सबके सुख में सुख पा लेती, दुःख में लुटाए ममता सारी।
सबसे देर में रात हो उसकी, सबसे पहले जगने की तैयारी।
सबकी उम्मीदों पर खरी रहे,अपनी उम्मीदें तार कर डारी।
व्रत, पूजन, प्रथा परंपरा उसके जीवन के अधिकारी
रीति, रिवाज, रस्म, चलन सबके दिये जलाए अटारी।
सबकी पसंद नापसंद का ख्याल रखती बनकर महतारी।
सजी संवरी मुस्काती रहती, बनकर पिया जी की प्यारी ।
प्रेम पत्र लिखते हैं प्रीतम तुमको
प्रेम पत्र लिखते हैं प्रीतम तुमको
हर अक्षर प्रेम से पढ़ना तुम
मेरे भावों को हृदय के
अंतस में गढ़ना तुम
रख देते हैं रोज़ एक फूल
उस पेड़ के नीचे जाकर हम
खिल उठते थे दोनों जहां
एक दूजे को पाकर हम
लिखते हैं वो घड़ियां तुम बिन
कैसे रो रोकर बीती हैं
कैसे विरह की रातें
आंखों में ही रीति हैं
कब आओगे प्रिय मिलने को
राह तुम्हारी तकती हूं
तुम्हें ढूंढती हूं ख्वाबों में
नींद में भी भटकती हूं
प्रेम पत्र में अहसास भेज कर
तुम्हारे करीब आ पहुंची हूं
उत्तर की प्रतीक्षा में
नैन बिछाए बैठी हूं।
अपने लिए
आओ हम कुछ बात करें।
अतीत को अपने याद करें।
रात-दिन संघर्ष करने से,
आओ कुछ राहत पा लें।
खुद को भी इंसान समझें।
आराम की थोड़ी भूख बढ़ा लें।
कुछ सुन्दर तस्वीरें देखें,
मनमोहक कोई पोस्ट सजा लें।
आओ हरियाली के सुखदायक
प्रभाव को दिल में बसा लें।
रंगों में आक्रामकता की
लालिमा को अंग लगा लें।
समय की गाड़ी को सरपट दौड़ाते हुए
भूला हुआ कोई गीत गा लें।
दिल के कब्रिस्तान में
भावनाओं को साथी बना लें।
खुशियों संग खेल खेल में
जीवन में लक्ष्यों को पा ले।
व्यर्थ होते इस जीवन से हम
आओ कुछ तो सबक पा लें।
आज फिर ( ग़ज़ल )
आज फिर किसी ने बेमतलब सा ये सवाल किया है।
महोब्बत ने दुनिया में आकर कौनसा कमाल किया है।
और भी ग़म हुए हैं ज़माने में महोब्बत से भी गहरे।
नफरतों ने भी तो ख़ून ए अरमां बेमिसाल किया है।
मिली नहीं महोब्बत जिन्हें, वो भी क्या खूब ही जिए।
महोब्बत ने दीवानों का सा दिलों का हाल किया है।
जिधर देखा हर कोई मसरूफ दिखा उलझनों में
फुर्सतों ने तो ज़िन्दगी को रंग ए मलाल किया है।
खुशनसीबी को लिखते हैं अपनी नज़्म में पिरोकर जो।
गुरबतों ने ही उनको भी तो माज़रत ए ख़्याल किया है।
शिद्दतें रहीं जिनकी हसीन मंजिलों को पाने की।
खुदाया उनकी ज़िद को भी तूने कहां बहाल किया है।
मयस्सर हैं जो नेमतें, उनकी आरज़ू ही ना थी कभी।
नामुमकिन सी हसरतों ने जी को अपने जंजाल किया है।
जिनके चले जाने का ग़म बर्दाश्त ए सुकून था हुआ।
लौट आना उनका सुकून ए ज़िन्दगी को बवाल किया है।
प्रथम नवरात्र शैलपुत्री
दुर्गा रूप मनभावन, छवि अद्भुत सुहाए।
नव दिन, नव आयोजन संग नवरात्रे आए।
नौ रूपों में शक्ति की आराधना नौ दिनों तक की जाए।
नौ दिन यज्ञ-अनुष्ठान करने का नित्यक्रम नवरात्रि कहलाए।
स्वास्तिक बनाकर रौली से कलश पर नारियल की स्थापना की जाए।
चुन्नी, श्रृंगार,अक्षत, हल्दी, फल-फूल सजाकर खेत्री बीजी जाए।
प्रथम नवरात्र शैलपुत्री माता के नाम समर्पित है।
व्रत, उपासना, उपवास से मां को करते प्रसन्नचित्त हैं।
मां पार्वती जब अग्नि को आहुति देकर सती हुई।
शैलपुत्री रूप में जन्म लेकर हिमालय के घर फिर आईं।
शैलपुत्री अर्चना से मूलाधार चक्र जागृत होते हैं अत्यन्त शुभता संग नवरात्र में ये जगते हैं।
प्रथम दिन मां की स्तुति सौभाग्य प्राप्ति लाती है।
शैलपुत्री अराधना चन्द्रमा विकार दूर कर जाती है।
मां शैलपुत्री के मुख पर कांतिमय तेज चमकता है।
भक्तों का उद्धार करती, दुःखों की मां हर्ता है।
श्वेत व दिव्यस्वरूपा माता वृषभ पर आरूढ़ हैं।
बाएं हाथ में कमल पुष्प, दाएं हाथ में त्रिशूल है।
विधि-विधान से जो मां शैलपुत्री का पूजन करते हैं।
मनोकामना पूरी होती है और दुःख कष्ट सब हरते हैं।
जीवन मरण
सबको ज्ञात रहता है सदा ही,
कि खाली हाथ ही जाना है।
जीवन भर मेरी मेरी,
रटते रटते मर जाना है।
देख रहे हैं रोज़ यहां
तिनका तिनका बिखरते हुए।
भागते चले जा रहे हैं फिर भी,
दिखते नहीं कहीं रुकते हुए।
सब तिजोरियां भरी हुई हैं,
जीवन के आनंद से।
समय नहीं जो हाल पूछे कोई,
पतझड़ का बसंत से।
कमा रहे हैं बेइंतहा दौलतें,
हो रहे हैं दौलतमंद।
समझ की खिड़की को फिर भी
करके बैठे हैं वो बंद।
घड़ी घड़ी समय देखते,
घड़ी भर का भी अब समय नहीं है।
कब दिन ढले और शाम हो जाए,
ये भी तो तय नहीं है।
शोर मचाते हैं कि मिलती नहीं,
कहीं सुकून की राह।
दिख जाए गर सुकून राह में,
तो रहती नहीं फिर उसकी चाह।
बदल रहे हैं मापन जीवन के,
बदल रहे हैं पल पल पैमाने।
अपने लिए जीते हों जहां सब,
किसको वहां कोई अपना जाने।
सबकी अपनी डफ़ली,
सबका अपना राग हुआ है।
हर कोई जीने से ज्यादा,
मरने को बेताब हुआ है।
एकल यात्रा
ना मंज़िल की तलाश हो, ना साथी की ही हो ज़ुस्तज़ू।
राहों के संग चलते रहें हम, इतनी सी हो बस आरज़ू।
तन्हा सा हो रास्ता और हसीन सी हो वादियां।
खुद को ढूंढ लाएं यां खुद ही खो जाएं वहां।
बंद आंखों से खुले मैदानों को छुएं, फैला कर अपनी बाहें।
जी भरकर फिर जी उठें हम, सांसों में भरकर मदमस्त हवाएं।
ऊंचे पर्वतों के रुबरू हो, बन कर उनके संगी साथी।
सामने बैठकर खेल आएं एक बार शतरंज की बाजी।
झीलों की गोद में पहुंचे, मिलें बैठकर कुछ बात करें।
अपनी कहें, सुनें उनकी, हसीन एक मुलाकात करें।
आसमानों को छूने की कोशिश में ऊंची चोटी पर चढ़ जाएं।
पंछियों के साथ मिलकर उनकी बोली में चहचहाएं।
घने जंगल में पेड़ों का हो झुरमुट, और उसमें हम गुम हो जाएं।
जंगली बाशिंदों के साथी बनकर, एक बार तो जंगली हो जाएं।
हसीन हो मंज़र और मंज़िल की ना हो कोई खबर।
अकेला रास्ता और बस सफ़र, सफ़र और सफ़र।
वक्त – एक नज़्म
आईना था वो उसका चेहरा।
अकस दिखता था उसमें मेरा।
बहुत एहतियात से रखते थे संभलकर।
चकनाचूर हुआ जब ठेस लगी दिल पर।
अपनी सूरत को जो वो रोज़ देता था बदल।
अब तो असल भी लगने लगी थी नक़ल।
वो जाने क्यों हमें छुप छुप कर परखते रहे ।
हम तो दिलों को जोड़ने की दवा भी पास रखते रहे।
इतने भी बीमार ना थे कि हमें बुला भी ना सके।
अपने जख्मों की हकीकत हमें दिखा भी ना सके ।
दर्द समझ जाते अगर जो वो कहीं हमारा।
तो यूं ना कर जाते बिछड़कर हमसे किनारा।
दिल ही तो टूटा था अपना बार बार।
यूं तो बाकी सब ठीक ही था मेरे यार।
चाहो तो अब जान भी ले जाओ हमारी।
रह ना जाए बाकी कोई ख्वाहिश तुम्हारी।
जिंदगी जीने का सलीका किसी ने हमें सिखाया ही नहीं।
वक्त जो चला गया हमारा, वो फिर वापिस आया ही नहीं।
अनमोल है हमारी हिन्दी
अनमोल है हमारी हिन्दी भाषा की सुंदरता।
हिन्दी भाषा में संस्कृति का मर्म है झलकता ।
जीवन का सार है हमारी हिन्दी भाषा में।
शक्ति अपार है हमारी हिन्दी भाषा में।
ज्ञान का सागर है हिन्दी भाषा के शब्दों में।
भावों की गागर है हिन्दी भाषा के शब्दों में।
साहित्य की दुनिया है हिन्दी के शब्दकोष में।
संवादों की अनुभूतियां हैं हिन्दी के जयघोष में।
अविभाज्य है, महान है हमारी हिन्दी भाषा।
देश का मधुर जनगान है हमारी हिन्दी भाषा।
संस्कृत के गर्भ से जन्मी है हमारी हिन्दी भाषा।
सब भाषाओं से महान बनी है हमारी हिन्दी भाषा।
अनवरत विकास पथ पर अग्रसर है हिन्दी भाषा
उज्जवल ज्योति का दिव्य प्रसर है हिन्दी भाषा।
राष्ट्र भाषा ही नहीं, राष्ट्र का गौरव है हमारी हिन्दी भाषा।
मन मोहित करने वाली सुमन सौरभ है हिन्दी भाषा।
शिक्षक की महिमा
धन्य हैं शिक्षक हमारे, भाग्यशाली हैं शिक्षार्थी।
विद्या का संवर्धन कर जो, उत्कृष्ट बनाते हैं विद्यार्थी।
बसंत, ज्यों नए हरे अंकुरों को पोषित है करता।
शिक्षक, छात्रों के जीवन को ज्ञान से है ऐसे भरता।
समर जीतने को कोई योद्धा, ज्यों दमखम अपना है लगाता।
जीवन युद्ध को जीतने की व्यवस्था, शिक्षक यूं सदृढ़ बनाता।
भक्ति भाव और साधना से, असंतोष का ज्यों तम है हरता।
शिक्षक, शिष्य में हार जीत का ऐसा अद्भुत विवेक है भरता।
पारस दृष्टि डाल शिष्यों पर सोने की सी पहचान है बनाता।
शिक्षक ही इस भौतिकवाद में शून्य का मूल्य है ज्ञात कराता ।
पत्थर को गढ़कर मूर्तिकार कोई प्राण उसमें ज्यूं भर है देता।
व्योम धरा का ज्ञान शिष्य में कूट-कूट कर शिक्षक भर देता।
शिक्षक ही मात पिता सा शिष्य का नेतृत्व है करता।
दिव्य ज्योति उर में जलाकर संस्कारों का आह्वान है करता।
उर्जा देकर सूरज जैसे, चाल ग्रहों की कायम है रखता।
ज्ञान प्रकाश से मिटाकर अंधेरा, शिक्षक जीवन को रोशन है करता।
मति मूरख अज्ञानी मानव पशुवत जीवन जग में जीते रहते।
नव संबल हिय ना जगाता कोई, शिक्षक अगर उत्साह ना भरते।
मुट्ठी में हमारी विश्वास बांध कर, शिक्षक ज्ञान का दम ना भरते।
अज्ञानता के अंधियारे गलियारों से बाहर हम कैसे निकलते।
कोरे कागज़ से जीवन को शिक्षक ही पहचान दिलाता है।
नई आशाओं के पंख लगाकर शिक्षक ही उड़ना सिखाता है।
समझ नहीं आता
( Samajh Nahi Aata )
कैसी ये उहापोह है
समझ नहीं आता
क्यों सबकुछ पा जाने का मोह है
समझ नहीं आता
लक्ष्य निर्धारित किए हुए हैं
फिर भी कैसी ये टोह है
समझ नहीं आता
खुशियों के संग की चाहत है
रिश्तों से फिर क्यों विछोह है
समझ नहीं आता
सुबह
अंधकार से उत्पन्न हुई एक किरण
आकाश की गहराई से आई है।
शिद्दत से प्रयास जारी रखकर,
आशा की रोशनी संग मुसकाई है ।।
ओस के सुखद स्पर्श से लबरेज
पंछियों के कलरव सी मन को भाई है ।।
सुबह की मंद मंद चल रही हवा
पी के देस की महक ले आई है ।।
कल की थकान को अलविदा कहती
नई उमंग से फिर जोश भर लाई है।।
आज के लिए उनींदीं सी रूहों को जगाती
नई उम्मीदों की डोर बांध लाई है ।।
ऊंचाईयां नापते हैं जो उनके लिए आकाश कहां चुनौती है।
आसमान से धरती तक नज़रें उसने बिछाई हैं।
सुकून को नहीं तनाव कोई है, शैतान को भिड़ने का है शौक।
कांटों की चुभन से संघर्ष करे जो उसने गुलाबों की क्यारी लगाई है।
चढ़ते सूरज को सलाम मिलते हैं, इसमें कोई शुबा नहीं।
हर कदम प्रयास और उत्साह ने ही कर्म की विजय पताका लहराई है।
जीने के सबक बिखरे हैं जीवन के हर कदम पर।
तैयार हों जो हर जंग के लिए तो ये भी इक सिखलाई है।
मनमोहक कृष्णा
मन को लुभा रही कान्हा तेरी चंचल चितवन।
देखूं तुझको खो जाऊं सुंदर छवि में मनमोहन।
तेरी बंसी की धुन सुनते ही रोम रोम हो मेरा तरंगित।
तेरे दर्शन पा जाऊं तो तन मन हो जाए सुगंधित।
मधुर मुस्कान तेरे होंठों की दिल चुरा ले जाए है छलिया।
होंठों पर तेरे थिरकती जब जब सांवरे मधुर मुरलिया।
मोर मुकुट से सज रहा मनमोहन तेरा सुंदर मस्तक।
रिझा रहे नैनन को कानन तेरे कुण्डल से सुशोभित।
बैजंतीमाला कंठ पर मन आनंदित करती जा रही।
तेरे चरणों की छवि प्रभु सबके अंतस को लुभा रही।
बैठ सामने तुझे निहारूं, निहाल हुई मैं जा रही।
नैनों में अपनी तुझे बसाकर गुलाल हुई मैं जा रही।
बांध लूं अपने कान्हा को ह्रदय की गिरह से।
मिलन ये सजा प्रेम से, ना टूटे किसी विरह से।
कान्हा का ही बुना हुआ है दुनिया का सब ताना बाना।
कान्हा को मन में बसा लिया या कान्हा का ही प्रेम पहचाना।
कर्मयुद्ध
द्रोपदी आज तुझे फिर पुकार रही है कान्हा।
संकट में घिरी अबला, राह बुहार रही है कान्हा।
दुश्यासनों की भीड़ लगी है, दुर्योधन हर मोड़ पड़े हैं।
अंतस हरण करने अबला का कौरव सब हठजोड खड़े हैं।
अर्जुन को उपदेश देने गीता का, फिर से सारथी बन जाओ।
अधर्म का संहार करो अब, धर्म को सही मार्ग दिखाओ।
बाणों की शैय्या बन गये हैं न्याय के मंदिर अब सारे।
शैतानों संग भीष्म खड़े हैं पांचाली अब किसे पुकारे।
आत्मा मर गई सभी की, थोथी देह लिए फिर रहे हैं।
लाशों के जैसे दिखते हैं, जाने जीते हैं कि मर रहे हैं।
धर्म को तोड़ मरोड़ रहें हैं, अपनी सुविधा के अनुसार।
कर्म के नाम पर कुकर्म कर रहे, कहते हैं गीता का सार।
अंधा न्याय करने बैठा, अंधा हो गया हर आदमी है।
धर्म की रक्षा की खातिर महाभारत होनी लाज़मी है।
फिर किसी धर्मयुद्ध की हार ना बने कोई माता, कोई बहना
अपने पार्थ को फिर से युद्ध भूमि में उतारो अब मेरे कान्हा।
मृत्यु
चाँदनी तारों भरी रात में
किसी देवदूत ने छू लिया ज्यूं कोई सितारा
आसमां से गोते लगाकर किसी ने ज्यूं
उसे हरी धरती की गोद में उतारा
कोई विशाल पक्षी ज्यूं ड़़रा रहा हो
हवा के रुख को
कुछ बादल के टुकड़े ज्यूं छिपा दें
सूरज कुछ पल को
नजरअंदाज कर दिया जीवन का मूल्यांकन
नजरअंदाज ना किया उद्देश्यों का मापन
तीर्थों से ऊबे हैं, आश्रय की तलाश में है
जीवन का हर मोड़ क्षितिज के कैनवास में है
बारिश इंद्रधनुष के रंगों की मस्ती बिखेरती है।
अंधेरी रात में डूबते तारों की रोशनी भी चमकती है
भावनाओं में जब परमानंद छलकने लगता है स्वर्गलोक की ऊंचाई को भी कम समझने लगता है
देवदूत के छूने से खिली हुई मीठी कुमुदिनी
ऊंघती धूप छाया में सो रही है
घास के मैदानों में मंदिर की घंटियों की ध्वनि शुभ क्षण सी प्रतीत हो रही है।
फिर भी सुख या दुःख के गीत यहां गाये जाते हैं
हम मरते हैं जबकि जीने के लिए बनाए जाते हैं
सावन और मायका
मौसमों का आना जाना है मायके में
सावन से रिश्ता पुराना है मायके से
हरियाली तीज पर मायके आती हैं बेटियां
सावन के झूलों में झुलाई जाती हैं बेटियां
लाड़ जो पीछे छोड़ गई थी
आती है वापिस पाने को
मां पापा भी जतन करते,
बेटी के नाज़ उठाने को
भाभियों संग मेंहदी के रंग
खिल जाते हैं हथेली पर
बेटियां उन्मुक्त हो खिलखिलाती हैं
पीहर की दहेली पर
भाई शुभ मनाते हैं
बहना के पीहर आने को
फूले नहीं समाते,
राखी की डोर में बंध जाने को
चूड़ी, बिंदी, साज़ सिंगार
सब सखियों संग सजातीं हैं
बेटियां पीहर में आकर
यूं अपनी जगह बनातीं हैं
रक्षाबंधन का तोहफा
एक तोहफा रक्षाबंधन पर तुम मुझको ये भी देना।
सुरक्षित हो तुम्हारी बहन सी, दुनिया की हर इक बहना।
गर्व हो जिसपर हर बहन को, ऐसे तुम मेरे भाई बनना।
कभी किसी मासूम बहन की आबरू तुम ना हरना।
ख्याल ग़लत जो कभी तुम्हारे मस्तिष्क में लगा दे घुन।
याद कर लेना चेहरा अपनी मां, बहन, बेटी का तुम।
स्त्री कभी कोई दोस्त तुम्हारी, शरण मांगने आती है।
सोचा है कभी, कितना भरोसा तुम से वो पा जातीं है।
कभी ना तोड़ना तुम उसके भरोसे को मेरे प्यारे भाई।
सारी दुनिया को छोड़कर तुम पर ही जो विश्वास कर पाई।
हर बहन आज भाई से, ये उपहार जो राखी का पा ले।
हर मां अपने बेटे की दूरदर्शिता पर गर्व से सर उठा ले।
घरों से ही शुरू करें गर बेटों को दें सही सोच और सिखलाई।
स्त्री को सम्मान मिले तब, सुरक्षित बहनें हों मेरे भाई।
रक्षाबंधन पर वचन मांगती, तुमसे तुम्हारी ये बहना।
सदा मनाऊं खैर तुम्हारी, सदा तुम सुख से रहना।
लम्हे -एक नज़्म
छुपकर क्या देखता है तमाशा मेरी तबाही का
आंख मिलाकर लुत्फ उठा किस्सा ए रुसवाई का
हर कदम जिंदगी से नसीहतें पा रहा हूं मैं
हर लम्हा अनुभवों की दौलतें सजा रहा हूं मैं
हर सांस के अहसान की कीमत चुकाई है मैंने
हर रिश्ते की अहमियत खुद को समझाई है मैंने
जो दर्द दिया है जिंदगी ने वो साथ मेरे चलता रहा
दर्द मुझे खलता रहा और मैं जिंदगी को खलता रहा
चलो यूं ही सवाल करते हैं देते हैं जवाब यूं ही
गलतफहमियां दूर हों जाएं तो कर लेंगे फिर हिसाब यूं ही
खुद को डूबो भी चुके जिंदगी को समझते समझाते
ज़िन्दगी के इम्तिहान हैं कि खत्म होने को ही नहीं आते
यहां वहां भटका किए ढूंढते रहे खुद को
मिले आखिर खुद में ही छोड़ दिया जब ज़िद्द को
देखते हैं रोज़ उन लाशों को जो ख्वाबों से लदी चली गईं
सुना तो था हमने कि मौत पीछे कुछ ना छोड़ गई
जीवन की मृत्यु
चलना जिंदगी है, बारिश मौत है,
सभी बारिश में चल रहे हैं।
सावधान, सतर्क, खुश, डरे हुए,
बचकर छतरी ओढ़ रहे हैं।
एक दिन एक बूंद छू जाती है हमें
और छतरी मुहिया नहीं है।
खुले आकाश की बारिश वाले
डर को अभी तक छुआ नहीं है।
सब भीगते हुए मजे से चल रहे हैं।
लंबी सैर के बाद थक रहे हैं।
बिना रुके संघर्ष करते हैं, आगे बढ़ते हैं।
आश्चर्य से उन्हें हम भीगे हुए चलते देखते हैं।
बूंदों की बरसातों के इच्छुक नहीं थे कभी वो भी।
फिर भी नही छोड़ी पदयात्रा भीगने के डर से कभी।
बिना लड़े हारे नहीं, हारने के लिए चुनी गई लड़ाई।
युद्ध की समाप्ति तक झुके नहीं, हार भी सहर्ष अपनाई।
वे भी चलना चाहते थे छतरी के नीचे, हमारे साथ।
छतरी ने बाहर फेंक दिया था, छुड़ा कर उनसे हाथ।
किसे परवाह है,व्यस्त सड़क पर कौन भीग रहा होता है।
हमारे जीवन का, संघर्षों का और हमारी मृत्यु का निर्णय कैसे होता है।
जीवन आंनद
एक दिल है महसूस करने के लिए,
जब तक चलती रहें ये सांसें।
सत्य सार्थक दुनिया को
देखने को मिलीं हैं दो आंखें।
दिल आनंदित हो तो प्यार करता है,
हर किसी को देता है सांत्वना की संतुष्टि।
आंखें देखें हर सू उसी को,
जिसके नियंत्रण में है ये सृष्टि।
जीवन ईश्वर ने पुरस्कृत किया है।
सुख, दुःख या उत्साह दिया है।
अच्छे कर्मों से सम्मान है मिलता।
कर्म के धागों से सुख है बुनता।
सब कुछ सुंदर, शांत और शुद्ध होकर।
शोकपूर्ण निराशा की भावनाएँ छोड़ कर।
धूप वाले आँगन से लेकर अँधेरे कमरे तक।
पूरा का पूरा अपना ही तो है ना वो घर।
शाम की तन्हाई में एक कोने में बैठा हूँ।
स्याह आसमान को देख रोने बैठा हूँ।
दिनभर के उदास विचारों में डूबा हुआ।
सूखे भावों के भीतर सागर की सी गर्जना।
यह सकारात्मकता है यां नकारात्मकता।
खेल खेलती रहती है भीतर ही भीतर अंतरात्मा।
दुःख के प्रबल होते ही है सुख की कामना हो जाती प्रत्यक्ष है।
इन सबमें एकमात्र आनंद ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
ये बारिशें
ये बारिशें धो रही हैं मैल अम्बर के मन का
ये बारिशें भिगो रही हैं अंतस प्यासी धरा का
ये बारिशें बदलने आईं हैं मौसमों के गर्म मिज़ाज
ये बारिशें सुनाने आईं हैं फिज़ाओं को दिल का हाल
ये बारिशें दिलों को ले चलीं हैं उन्माद की ओर कहीं
ये बारिशें कर रहीं हैं मन में मीठा सा गदगद शोर कहीं
ये बारिशें ले चली हैं मन की उड़ान को सुदूर कहीं
ये बारिशें बूंदों में गिरा रही मोतियों का सा नूर कहीं
ये बारिशें तरंगित कर रही कंठ में सुरों की तान को
ये बारिशें आनंदित कर रही पैरों की झंकृत थाप को
ये बारिशें अपनी खुशबू को डुबोने लगीं हैं हर शै में
ये बारिशें अपने सरुर से समाने लगी हैं हर रुह में
ये बारिशें छेड़ रहीं हैं मन में राग मल्हार के
ये बारिशें जगा रही हैं ह्रदय में भाव अनुराग के
ये बारिशें कर रहीं हैं बारिशें प्रेम की, उल्लास की
ये बारिशें कर रहीं हैं बारिशें आस की, मधुमास की
इंतज़ार
बहुत खूबसूरत हैं ये यादें
इंतजार उनका करने की कुछ ऐसी आदत पड़ी है।
जानते हैं कि नहीं आएंगे वो, फिर भी द्वार पर नज़र गड़ी है।
रह रह कर राह तकते हैं, आए नहीं वो यादों से निकलकर।
लग रहा है थक गई है घड़ी भी चल चलकर।
उम्र गुजर गई पर खुद को समझा ना सके।
उम्र तो नहीं थे तुम कि लौट के आ ना सके।
अतीत की यादों से उन्हें कैसे कोई बुलाएगा।
यादों में उनकी यादों को ही साथ पाएगा।
यादों से ही सीख रहे हैं साथ निभाने की अदा।
साथ नहीं रहे जो उनको भी साथ रखतीं हैं सदा।
बीत गया सो बीत गया वापिस फिर ना आएगा।
वक्त ही है जनाब अपना हुनर तो दिखाएगा।
बहुत खूबसूरत हैं ये यादें, पर सिर्फ यादों में कब तक रहा करें।
कभी तो यादों से बाहर निकलकर हमसे भी मिला करें।
फिर एक बार दिल दुखाने को, रुलाने को चले आओ।
इंतज़ार कब तक करते रहें ये बताने को ही चले आओ
लाल रंग
स्नेह से प्रेम जताया जाना
उपहार में गुलाब दिया जाना
सूर्य का उदय होना यां
शिशु का जन्म लेना
सब संकेत प्यार को परिभाषित करते हैं
गहरा लाल रंग फूलों पर कोमल दिखता है
वही लाल रंग आंखों में आकर उग्र होता है
मन के भाव और मस्तिष्क के विचार
ज्वलंत भावनाओं की छाया में
आक्रामकता से कर रहे हैं मानवीय कार्य
जैसे प्रियतम के लंबे इंतजार के बाद
प्रेयसी का चेहरा क्रोध से लाल है
पश्चिमी सागर की गोद में डूबता सूरज
आसमान में लाली बिखेर रहा है
इस लालिमा को काबू ना किया जाए
रोका ना जाए, दबाया ना जाए।
न सिर्फ आक्रामकता बल्कि परिपक्वता को मौका दिया जाए
अत्यंत कोमल लालिमा का अनुभव लाल गुला़ब
यां अत्यंत दृढ़ सुर्ख मादकता का स्वाद रेड़वाइन
आवश्यक रूप से स्नेह से प्रेम को बढ़ाते हैं।
मेरी कविता के शब्द
तुम्हारे शब्द निहार रहे हैं मुझे
और लज्जा से गढ़ी जाती हूं मैं
बंद करके भी देखा है मैंने किताब में खुद को
तुम्हारे शब्दों में फिर पढ़ी जाती हूं मैं
मेरे कंधों को छूते हुए गुजर रही थी तुम्हारे शब्दों की क्यारी
पलकें झुका ली हमने कि रुक ना जाए कहीं सांसें हमारी
तेरे शब्दों को अनेकों बार पढ़ लूं तो संवार लूंगी खुद को
विरामों से भरी पंक्तियों को गढ़ लूं तो निखार लूंगी खुद को
तेरे शब्दों के सागर में तैरती हूं मीन बनकर मैं सुनहरी
तेरे शब्दों से मचल उठती हूं तेरे शब्दों में हूं ठहरी
तेरे शब्दों के कोष को अंतस में संभाल रही हूं मैं
तेरा एक एक शब्द अपने ज़हन में उतार रही हूं मैं
तेरे शब्दों में तेरे भावों का मेल रोज़ देखती हूं मैं
भावों का कागज़ पर उतरने का खेल रोज़ देखती हूं मैं
तेरे शब्दों में मिलते हैं, तेरी मुस्कान, तेरे आंसू, तेरी बेबसी, तेरी आहें
तेरे शब्दों को लय मिल है तो तरन्नुम को मिल जाती हैं नई राहें
तेरे शब्दों से तेरे भावों की सरिता बन जाती हूं मैं
तेरे हर शब्द से मिलकर तेरी कविता बन जाती हूं मैं
नाकाम
दुनिया की उम्मीदों पर खरा ना उतर सका मैं।
ज़िंदा रहते खुद को मरा ना समझ सका मैं।
अपने कद का अंदाज़ा सदा रहा मुझे।
अफसोस है कि खुद से बड़ा ना बन सका मैं।
एक उनके लिए, और दूसरा अपने लिए
ऐसे दोहरे चरित्र का प्रहसन ना पहन सका मैं।
ईमानदारी का झूठा मुखौटा चढ़ाकर चेहरे पर,
साधु दिखने की खातिर खुद को ना गिरा सका मैं।
मैंने अपनी नाकामी को लिखने की कोशिश की,
पर जीवन को चरित्र की किताब ना बना सका मैं।
मूर्ख बनाकर नेतृत्व करुं, उपदेश दूं, ये नहीं रहा मेरा मकसद कभी।
खुद को चालाक नेता या उपदेशक ना बना सका मैं।
मैं सफेद को सफेद और काले को काला कहने का साहस करता रहा।
लोगों के ओहदे देखकर उनके रुतबे ना बना सका मैं।
नफरत या दुश्मनी को खेल की तरह नहीं खेला कभी।
युद्ध या नरसंहार की वजह खुद को ना बना सका मैं।
अपनी जरूरतों में कटौती करना मेरी अपनी चाहत रही।
अपने प्रयासों से अकेले, दुनिया को खूबसूरत ना बना सका मैं।
मैं मशहूर नहीं हुआ तो दुनिया के काम का ना रहा
कोई मुकाम हासिल ना किया, कुछ खास किये बिना दुनिया से ना जा सका मैं।
पति पत्नी
उनका मिलन आकर्षण नहीं, प्रेम की अतिशयोक्ति है।
उनका जीवन एक दूसरे के प्रति उनकी संपूर्ण भक्ति है।
जीवन के सुख-दुख साझा करने का फैसला है।
एक ही छत के नीचे उन्हें आश्रय भी मिला है।
जिंदगी गुलाबों की सेज सी तो नहीं है बेशक।
प्रेम का सार और भाव मिलते हैं अनंत काल तक।
प्रेम, आनंद, भक्ति और समर्पण।
पवित्रता से मंगलमय जीवन का हर क्षण।
यह क्षणिक नहीं है, और न ही कोई खेल है।
ना ही फिल्मों का सा रंगों और स्वादों का मेल है।
यह धीरे-धीरे दृढ़तापूर्वक बढ़ता रहता संबंध है।
कछुए की चाल या खरगोश की दौड़ का अनुबंध है।
ऐसे क्षण भी आते हैं जहां सब सहन करना होता है।
ढलती उम्र में पुराने रिश्तों को वहन करना होता है।
कड़वाहट भी उपहार स्वरूप लगने लगती है।
परस्पर भावों के आदान-प्रदान से जिंदगी भरने लगती है।
चाहते हैं कि गलतफहमियां कम हो जाएं।
मतभेद संतोषजनक ढंग से हल हो जाएं
जिंदगी की पटरी से उतरी गाड़ी प्यार से बहाल हो जाए।
विश्वास और प्रेम से सभी समस्याओं का हल हो जाएं।
ज़िन्दगी का सबक़
ज़िन्दगी कैलेंडर नहीं कि हर महीने पन्ना पलट लेंगे
जनवरी से दिसम्बर तक बारह रंग बदल लेंगे
जिंदगी समुन्दर नहीं कि लहरों संग अठखेलियां करेंगे
डुबकी लगाएंगे और मोतियों से भरी सीपियां पा लेंगे
जिंदगी बवंडर नहीं कि ऊंचे ऊंचे उड़कर हवाओं का रुख बदल देंगे
सूखे पत्तों की तरह गमों को समेट कर जिंदगी से अलग कर देंगे
जिंदगी मन्दिर नहीं कि सब सर झुकाएंगे, हाथ बांध लेंगे
विनती स्वीकार होगी, प्रसाद से झोलियां भर लेंगे
जिंदगी सिकंदर नहीं कि सारा जहां कदमों में झुका लेंगे
राज़ करेंगे जहां पर, सारी दुनिया को गुलाम कर लेंगे
जिंदगी तो रहबर है जनाब, हर मोड़ नयी राह देखेंगे
हर घड़ी जिंदगी से नये अनुभव पाएंगे, नये सबक सीखेंगे
स्वयं की खोज
आत्मा के अस्तित्व की वास्तविकता।
और ब्रह्माण्ड की भव्य विशालता।
इतिहास की शुरुआत से ही ये दोनों,
अनसुलझे से रहस्य हैं।
जीवन के बाद की खोज कभी पूरी नहीं होती,
मृत्यु सत्य है यां असत्य है।
अनवरत जीवन की ये कोई नई शुरुआत नहीं है।
कहां जाते हैं हम कहानियों के अंत में, ज्ञात नहीं है।
कौन सांस लेने को हमसे कहता है।
सांस छोड़ने को कौन मजबूर करता है।
अंत स्थलीय यात्रा के पड़ाव कैसे बनते हैं।
दर्द, पीड़ा, बुढ़ापा और मृत्यु किससे डरते हैं।
सुखों के रहते दुःखों के पास हम क्यों आते हैं।
खुद ब खुद दुःख हम तक कैसे पहुंच जाते हैं।
बाहरी तौर पर हम जीवन भर भटकते हैं।
आत्मा की अंतर्निहित समाधान तक ना पहुंचते हैं।
सुख-सुविधाओं को छोड़कर जीना नहीं चाहता कोई।
रहस्यों से शर्मिंदा होकर रहना नहीं चाहता कोई।
ये जन्म ही दुःखों का मुख्य कारण है।
शायद मरण बन जाता निवारण है।
प्रेम का दर्शन
प्रेम दार्शनिक कैसे हो सकता है बताओ भला।
प्रेम की ना तो कोई शाखा है, ना जड़ है, ना तना।
फिर भी सभी आयामों में इसकी उपस्थिति रहती है।
यह सब तर्कों से परे है, सदा वितर्क की स्थिति बनी रहती है।
बिना किसी निष्कर्ष के सब कुछ खोजता है प्रेम।
अंत हास्सयप्रद या दुखद होगा, ये नहीं सोचता है प्रेम।
अंत में सिर्फ अमर कहानियां ही छोड़ जाता है प्रेम।
प्रतिज्ञाओं को तोड़कर, बंधनों से जोड़ जाता है प्रेम।
विचारों को चित्रों से रंगना, प्रेम का खूबसूरत पैगाम देता है।
स्वयं से प्रेम करना, ईश्वर से प्रेम करने के समान रहता है।
प्रेम कभी भी शारीरिक स्नेह नहीं हो सकता।
मन की गहरी परतों में छिपी है प्रेम की क्रूरता।
कांटों में गुलाब की कोमलता महसूस करने की चाहत है प्रेम।
प्रेम के बदले में कुछ ना चाहने की बेफिक्र सी राहत है प्रेम।
प्रेम, दयालुता से ब्रह्मांड में व्याप्त है चहुं ओर।
आभार से और कृतज्ञता से बंधी रहती है प्रेम डोर।
जब सपने सच हो जाते हैं
दिन पर जब रोशनी का ज्यादा पहरा होता है।
तो रात का अंधेरा और भी गहरा होता है।
जीवन चलचित्र सा लगने लगता है
पापी मन पवित्र सा लगने लगता है
हर कदम पर नई सीख मिल ही जाती है
कुछ सुखद पल दूसरों से मिली धाती है।
खुशियां हैं, पर दुःख उससे ज्यादा हैं।
समय बस मुट्ठी से फिसलता जाता है।
आने वाले कल के साथ, आज का सौदा करना पड़ता है।
मिले हुए अवसर गंवा कर समझौता करना पड़ता है।
सीलबंद ख्वाबों में गिरफ्तार होती हैं उम्मीदें।
आशाओं के पर लगाकर निर्मित होती हैं नई ख्वाहिशें।
प्रभुत्वशाली साम्राज्यों के महल ढहने लगते हैं
खंडहरों पर सौदेबाजी को मौके मिलते हैं
खुली आंखों से सपने देखना सोने जैसा ही मतिभ्रम होता है
खोखली हंसी का असहाय चीखों के आगे समर्पण होता है।
उगते सूरज की रोशनी जग को खामोशी से उजाला दे जाती है।
बढ़ते चांद की चांदनी रात की खूबसूरती में चार-चांद लगाती है।
अंतहीन लड़ाई का साहस जगाने का साहस कहां से आता है।
हर जीत को पाने से पहले हार को चखा जाता है।
जब अरमान सारे अपने बस में हो जातें हैं।
तब रोशन हुए सपने खुद ही सच हो जाते हैं।
पहली बार
पहली बार जब जाना दुनिया को, वो मेरे जैसी नहीं थी।
पहली बार जो माना दिल ने, बात वही ही सही थी।
पहली बार ऊंचा उड़ने की चुनौती सामने पाती थी।
पहली बार दूर आकाश में प्रेरणाएँ उकसाती थीं।
पहली बार कल्पनाओं की पतंग ढीली छोड़ दी थी।
पहली बार हरियाली की राह अपनी ओर मोड़ दी थी।
पहली बार गर्म सूरज की तेज़ चमक से आंखें मिलीं थीं।
पहली बार सुखदायक चंद्रमा की और आकर्षित हुई थी।
पहली बार निसुप्त रात में गुप्त कोई कहानी सुनी थी।
पहली बार काँटों में खिलते फूल की खुशबू ली थी।
पहली बार ध्यानमग्न हुए वृक्षों के संग खड़ी थी।
पहली बार आकर्षक मनमोहक सुंदर मेले सी सजी थी।
पहली बार जीवन के हर सुख-दुःख का आनंद उठाया था।
पहली बार तमाम सुखद अहसासों का कड़वा सच भाया था।
पहली बार जिंदगी के लंबे सफर में ये हुआ था।
पहली बार उसकी छत पर अपने मन को छुआ था।
बहकावा
नज़रें उठाकर आसमां से बातें चार कर लेते हैं
चांद को देख लेते हैं और उनका दीदार कर लेते हैं
उलझे रहते हैं कि उलझनों में दर्द घट ही जाता है
इन उलझनों को सुलझाने में वक्त कट ही जाता है
एक ही बात को जाने क्यों सौ सौ दफा कहते हैं वो
हर बार किसी पर मर मिटने को वफ़ा कहते हैं जो
अपनी ही सूरत आईने में देख कर दंग लग रहे है
सदियों पुराने इंसानों को अब तो जंग लग रहे है
कीमत नहीं कोई बस ठोकरें ही खाए जाते हैं
पत्थर हुए तो क्या हिफाज़त के लिए तो उठाए जाते हैं
जिंदगी से तंग आकर पीते चले जा रहे थे
मरने की उम्मीद में जीते चले जा रहे थे
बड़ी मुश्किल से मिलने के बहाने आएं हैं
लड़खड़ाते लड़खड़ाते तेरे ठिकाने आएं हैं
उनके वादे तो झूठ की इन्तहा किए बैठे थे
वो आकर चले भी गए और
हम इंतजार में आंखें बिछाए बैठे थे
जब कोई सत्य नहीं था
जब कोई सत्य नहीं था
तब झूठ भी कहां था
जब सब कुछ अस्पष्ट था
जब सब कुछ अदृश्य था
जल और वायु भी कहीं नहीं था
अस्तित्व का कोई पर्याय भी नहीं था
भावना पनपने की वाजिब वजह नहीं थी
रिश्तों के लिए ज़मीनी सतह भी नहीं थी
तब प्रेम ने आकर्षित किया, शून्यता के करीब ले लाया
वासना ने आनंदित किया, संबंधों का बंधन बन आया
ब्रह्माण्ड अस्तित्व की ओर अग्रसर हुआ
जन्म और मरण का समय तब तय हुआ
भौतिकवाद और भौतिकता मिश्रित हुए
सब तत्वों के संबंध तब निश्चित हुए
इस जुड़ाव और रिश्तों ने चमत्कार दिखलाया
पदार्थों और प्राणियों को जीवन से मिलवाया
तारों, ग्रहों और उपग्रहों को जन्म मिला
दृष्टिकोण में परिवर्तन वाजिब कारण बना
पहले सब कुछ शायद ऐसा नहीं रहा होगा
वर्तमान तक पंहुचने तक समय लगा होगा
दिमाग वाले प्राणियों ने उन्नति की, और इंसान बन पाये
प्रकृति के स्वरूप नियमों को बदलने का प्रयास कर पाये।
वह बंधन जिसने ब्रह्मांड को जन्म दिया।
वह बंधन रिश्तों की नाज़ुक डोर बन गया।
प्रकृति से मिलकर नये पदार्थों को बनाता रहा।
लोगों से मेलजोल करके घर परिवार बनाता रहा
नये रिश्तों की गांठें धीरे धीरे बंधने लगीं
मनुष्यों, समाजों, राज्यों और राष्ट्रों में बंटने लगीं
रिश्ता ही जुड़ाव का मूल कारण बना
संबंधों का बंधन जीवन आनंद बना
सभ्यताओं की उपलब्धि बेशक रही है।
लेकिन रिश्तों के विकास से पीछे ही है।
प्रेम में बंधनों से जुड़ने की उकस है
रिश्ते सभ्यताओं की सर्वोत्तम उपज हैं।
स्वतंत्रता
प्रकृति नियमों से बंधी है ,सारा ब्रह्मांड नियमों से क्रमबद्ध है।
निर्विवाद रूप से धन वैभव के अनुयायियों को उपकृत है।
सूर्य चंद्रमा तारे ग्रह हों या उपग्रह अनुशासन के पालनकृत हैं।
अपने पथ पर घूमते वास्तविक रूप मे अपनी योग्यता का अस्तित्व हैं।
ऋतुएँ आएं, जाएं, फूल खिलें, कटी फसलें सूख जाएं, सब कुछ अनुशासित है।
दिन की आशा के साथ भोर या संध्या ढल जाते हैं,
फिर भी मनोबल अडिग हैं।
ऊंची छलांग लगाने की कोई बंदिश नहीं क्योंकि आकाश तो अनंत है।
नैतिकता का संयम बना रहे तो भी, भ्रष्टाचार का प्रतिबंध हैं
स्वतंत्रता की आत्मा सबसे मधुर गीत गाती है
आकाश सुनो, यह बड़ी मनमोहक समाधि है
मानव जाति की महानतम रचनाएँ लिखी गई हैं इसपर
जिनमें बिना बंधन वाले हाथों की तस्वीर नज़र आती है।
मौत के इंतजार में
रोज़ कितना आज़माती है हमको ये ज़िंदगी।
इक पल में खुशियों से झोली भरती है तो
दूजे पल फिर क्यूं रूठ जाती है ये ज़िंदगी।
सवालों की लड़ियां बनी रहतीं हैं मस्तिष्क में,
जवाबों को इतना क्यों उलझाती है ये ज़िंदगी।
नाउम्मीदी ने जब मौत से अब कर ही ली है दोस्ती,
जीने की फिर उम्मीद क्यों बंधाती है ये ज़िंदगी।
हर सांस को आखिरी मान कर जी रहे हैं अब तो,
इतना भी अब हमको क्यों डराती है ये ज़िंदगी।
जुड़ गईं है कई ज़िन्दगियां, जो ज़िंदगी से अपनी,
उनपर भी अपना कहर क्यों ढ़ाती है ये ज़िंदगी।
समय, हर घड़ी जो सरक रहा है, रुकता हुआ सा,
रफ़्तार इसकी क्यों नहीं बढ़ाती है अब ज़िंदगी।
जिस रंग में चाहे, उसी में रंग देती है हमें ये,
हर दिन फिर क्यों, नया रंग दिखाती है हमें ज़िंदगी।
अब कर भी दे मौत के हवाले अपने ही हाथों से,
हर पल मौत से क्यों मिलवाती है हमें ज़िंदगी।
कारगिल के शहीदों की विजयगाथा
कारगिल के शहीदों के शव, तिरंगे में जब लिपट कर आये थे।
तो शौर्य, बलिदान, श्रद्धा और आँसुओं के सैलाब आंखों से निकल आए थे।
देशभक्तों ने शहीदों के सम्मान में झुकाया था माथा।
देश सदैव स्मरण रखेगा उन वीरों की विजयगाथा।
लडे़ थे वो ठंडी रातों मे, शत्रुओं की रुह भी थर्रा गयी थी।
देख तांडव वीरता का, काल की गति भी घबरा गयी थी।
वीरता और साहस की यह अनुपम गाथा सदियों तक गाई जाएगी।
वीरों के सम्मान में श्रद्धा की दीपमाला सदैव जलाई जाएगी।
कारगिल की विजय, शौर्य की कशीदाकारी से सजी है।
शहीदों की जांबाज मूरत, हर हिन्दुस्तानी के दिलों में बसी है।
जवानों का अविस्मरणीय बलिदान, हिंद की शान बन गया है।
शहीदों का सम्मान, विजय दिवस की पहचान बन गया।
दिल में हौसलों का तूफान लिए फिरते थे वो।
आसमानों से ऊंची उड़ान लिए फिरते थे वो।
वक्त भी उनकी आजमाईश से हार गया था।
देश की खातिर मुट्ठी में जान लिए फिरते थे जो।
आज पूरा देश कारगिल विजय दिवस की रजत जयंती मना रहा है।
भारतीय सैनिकों के सर्वोच्च बलिदान को याद करके यह गीत बरबस गा रहा है।
….जब घायल हुआ हिमालय ख़तरे में पड़ी आज़ादी
सरहद पर मरनेवाला हर वीर था भारतवासी ….
शिखा खुराना
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बहुत ही खूबसूरत रचनाये… 👌