सूझबूझ | Soojh – Boojh
“माँ, तुम मंदिर जाती हो न?” सुधीर ने अपनी मांँ से सवाल किया।
” हांँ, जाती तो हूँ।” मांँ ने अपने बेटे के पूछे सवाल का जबाब दिया।
“तब, धर्म और अधर्म ये दोनों कौन हैं? जिनके नारे जय और नाश के लिए लगाए जाते हैं।” सुधीर की बातें मां को अच्छी नहीं लगी फिर भी उसे आस्वस्त करते हुए कहा।
“धर्म और अधर्म दोनों सगे भाई जैसे हैं, एक लोगों को सुख पहुंँचाता है तो दूसरा दुख। इसलिए उनके पक्ष-विपक्ष में जय और नाश के लिए जयकारे लगाए जाते हैं।” मांँ ने उसे समझाते हुए कहा।
“मांँ, यदि जिंदगी में सिर्फ दिन हो और रात नहीं हो, प्रकाश हो अंधेरा नहीं हो, सुख हो दुख नहीं हो और सुर हो असुर नहीं हो तो फिर प्रकृति भी तो प्रकृति नहीं रह जाएगी।” बेटे के मन में धर्म और अधर्म पर चर्चा करते हुए किसी को तकलीफ पहुंँचाने की इच्छा नहीं थी लेकिन वास्तविकता जानने की इच्छा तो थी ही, इसलिए उसने उत्सुकता जताते हुए कहा।
“तुम बहुत तर्क – वितर्क करता है, नास्तिक है, तुम।” वह उस पर झल्ला-सी गई।
“हमें आस्तिक का हिसाब भी तो समझाओ, माँ।”
बेटा अब मांँ के गुस्से से चुप रहने वाला नहीं था। “एक दूजे के विलोम में गढ़े गए शब्द हैं ये दोनों, लोग जयकारे लगाते हैं अपनी तसल्ली के लिए। नियंता तो कोई और है। वह जो कुछ भी करता है अपनी सूझबूझ से।”
विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड
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