विद्या शंकर विद्यार्थी की कविताएं
तुम्हें क्या पता
जिस गीत में, तुम मित हो
तुम मित हो, तुम गीत हो,
तुम्हें क्या पता, तुम्हें क्या पता, तुम्हें,,,,।
बज गई एक रागिनी, मेरी जिंदगी के तार में
क्या पता तुम्हें भला, मैं जी रही किस प्यार में
तुम गीत हो, संगीत हो,
तुम्हें क्या पता, तुम्हें क्या पता,,,,,।
रात है यह चांदनी, जो कि चैन छिन जाती है
मैं दूर हूँ, फिर भी प्रिय, तुम बिन न नींद आती है
तुम गीत हो, तुम मित हो,
तुम्हें क्या पता, तुम्हें क्या पता, तुम्हें,,,,
चेहरे को पढ़ना मुश्किल है
जहांँ महंगाई नट-खेल करे, क्या भक्ति की बात करें
पेट में आग लगी हुई हो, और शहनाई की साथ धरें।
ईंट-पत्थर ढोता वह आज भी, रोटी – रोटी रोता है
जिस दिन पेट भरता नहीं है खाली पेट ही सोता है।
कौन कृष्ण की मुरली सुनेगा, यमुना का तट निहारेगा
बेटे भी मजदूर बन रहे हैं, इस बात पर कौन विचारेगा।
मार्बल वाले खुलकर बोलें, रोटी को रोना वाजिब है
सड़क किनारे टूटकर सोना, रोटी को रोना वाजिब है।
किसी के अंग कपड़े से ढंकते और किसी के खुले हैं
किस बात में आकर हम आप उसके दिन को भूले हैं।
किस दिन नहीं मंगरा की बेटी जंगल से लकड़ी लाती है
चावल आटें कम – कम ही लिए बाजार से वह जाती है।
कुछ खुशी कुछ गम होते हैं, औ कुछ आंँखों में आंसू भी।
चेहरे को पढ़ना मुश्किल है क्योंकि होते हैं जो रूआंसू भी।
दीपावली
रिश्ता क्या बताएं व्यवहार छोड़कर
नफरत कैसे अपनाएं प्यार छोड़कर
दूरियां बढ़े नहीं बीच में दीए जलाना
हृदय से गले लगाएं तकरार छोड़कर।
दीप – पर्व के आंगन में संसार बसाएं
जहां विश्वास फैले और फैले आशाएं
बहुमूल्य प्रेम-दीप में पैसे नहीं लगते
जो कोई राह भूले तो उन्हें भी दिखाएं।
आंखें चाहती कब है कि दूरियां रहे
इधर गढ्ढा उधर खाई मजबूरियां रहे
दीपावली इसीलिए आती है पाट दें
न मजबूरियां रहे न बनी दूरियां रहे।।
हँस के रह जा
प्यार में नाम ना लिखऽ हंँस के रह जा
आंख काफी बा एह में बस के रह जा
सुरता परी त इयाद तोहार अइबे करी
आंगन के पुरवाई में हुलस के रह जा
बही बेयार त चुनरी तोहार उड़बे करी
जिया जुड़ा के आ तूं बरिस के रह जा
का जुदाई में सुनऽ, कबो रोवे के बाटे
बिरह के आग से निकस के रह जा
लगन प्यार के आदमी ना देल करेला
जीवन ई प्यार ह, समझ के रह जा।
घठ गीत – ए बहिनी
एही घटिया अरघ ए बहिनी तोहरो हो दिआए
करवा जोरी अरज ए बहिनी इहें करि लिआए
जलवा ना बेयरिया बहिनी बंटले दीनानाथ
घटिया प दियरिया ए बहिनी जरे साथे साथ
अदमी के धरमवा ए बहिनी अदमी ना घिनाए
बांझिन ई शबदिया ए बहिनी जादे दिल दुखाए
काहे दोषबु सुगवा ए बहिनी देलन फल जुठाए
सुगनी के बियोगवा ए बहिनी सहले ना सहाए
मइया के किरिपवा ए बहिनी लोरवा हो सुखाए
धीरज धरऽ मनवा ए बहिनी मइया दिहें जुड़ाए
फगुनी
दर्द देता नहीं तो यहां हरता कौन है
भूखे और प्यासे यहां मरता कौन है
फगुनी ईंट लिए चाल पर चढ़ती है
बेटे पलेंगे सोचती हुई वह बढ़ती है
किन्तु मुंशी की नजर लग जाती है
आंखें उसकी मुस्तैद कर जाती है
फगुनी सतर्क रह वर्ना लूट जाएगी
टूटी नहीं है फगुनी, तुम टूट जाएगी
जो हंसते हैं उनकी नीयत पहचान
पीते हैं शराब उनकी तबीयत जान
तेरी सूरत में लावण्यता दिखती है
तुम तो गरीबी को गरीबी लिखती है
उन्हें क्या लेना देना है तेरी भूख से
जिंदा रह या मर घर में तुम दुख से
फटी साड़ी में तुम तो दिन बिताती है
कभी खाती तो उपवास रह जाती है
आटे चावल की कीमत तो बढ़ती है
दाम घटाओ कहां किसी से लड़ती है
बड़े रैयत वाले तो और भी रौंदते हैं
जहां कोई बढ़ा कि उसे वे औंधते हैं
फगुनी तुम उनकी हबेली मत जाना
करती है हवा सतर्क अकेली मत जाना
तोड़ना पत्थर भले तरू की छांव में
नदी तो बहती रहती है तेरे गांव में
नदी जाकर मटके में पानी भर लाना
जी थके तो राह में कहीं ठहर जाना
एक हँकार में तेरी खबर ले लेंगे हम
तुम सुरक्षित है, मेरे लिए यही है दम
मैं मंगरा हूं तुम मेरी फगुनी है बेटी
पिता के हृदय में बसी सगुनी है बेटी।
ठाकुर ने सोच कर मुझे फंसाया था
औ थानेदार ने कोड़े मुझे लगाया था
किस गुनाह में कोड़े तुम लगाते हो
हैं दलित इसलिए तुम फंसायाते हो
प्रतिरोध में ताने छाती मैं अकड़ा था
हिम्मत और हौसले से जो खड़ा था
नहीं पलता हूं मैं किसी के दाने पर
क्यों डरता मैं झूठी डांँट लगाने पर
बुनते पत्तल बेचते और खाते हैं हम
नहीं किसी के कुएं पर जाते हैं हम
जात के आदमी हैं हम तुम सोच लो
है हिम्मत तो बाल एक भी नोच लो
लज्जित हो गये वे दोनों पानी पानी
होने लगी अंतस् उन्हें आत्म ग्लानि।
बिना गुनाह मैंने भी बगावत किया
कोई कहे ये कि मैंने अदावत किया
दर्द देता नहीं तो यहां हरता कौन है
भूखे और प्यासे यहां मरता कौन है।
हमें जिंदा गौरैया बसाकर दिखाना चाहिए सबूत
हम जमाने के साथ क्यों बदले
मौसम के साथ बदलना
चलना अच्छा लगता है ।
मौसम में धूप, वर्षा और ठंड तीनों है
छल और कपट नहीं है
मौसम निश्छल है आदमी से ।
नदी पहाड़ और समतल
कांटे नहीं बोते
जैसा कि आदमी की राह में आदमी बोता है ।
गाँव और शहर दोनों अच्छे हैं
गाँव खुशियांँ बोता है
शहर तरीके का व्यापार करता है
गाँव और शहर के बीच
दलाल घुस कर बर्बाद कर देता है
चलने बोलने का व्यवहार।
हमें औरों की चिंता तब और होती है
जब कोई भूखे सोता और बेटियांँ लूटती हैं
सियासत जमीन की नहीं रह जाती।
वर्तमान गम और कम में
जीने का संकेत दे रहा है
गम और कम कल के लिए अच्छे नहीं होते।
हमें प्लास्टिक की बनी गौरैया नहीं
अपने बच्चों को घर में बसा कर
दिखाना चाहिए जिंदा सबूत,
कि खुशी की जिंदगी यही है।
अनेकता में एकता की पहचान है हिंदी
हिंदी बाहर गए कामगारों के साथ जाती है
हिंदी बाहर से आए कामगारों के साथ आती है
क्योंकि वह हृदय में बसी होती है
वह महल की उर्वशी होती है तो क्या
गाँव की झोपड़ी में माँ की बेबसी भी होती है
जब बेटा बाहर जाता है तो माँ भूने के साथ गुड़ देती है/जिसमें माँ के हृदय का स्नेह होता है
वह हिंदी ही तो है/जो ताकत देती है/
बेटा बाहर से गाँव आता है तो माँ, पत्नी और बेटे-बेटियों के लिए कपड़े लाता है/जिससे अंग ढंकते हैं /वह हिंदी ही तो है/हिंदी जरूरत का एक नाम है/जिसमें वतन की झांकी होती हैं/महल में उर्वशी ऐसे ही थोड़े इतराती है/हिंदी सभी की एकता है/अनेकता में एकता की पहचान है हिंदी।
गीत बिदाई के
बाबा पोसलऽ तू जात के चिरईंया,
चिरईंया तोहार उड़ी जाई हो ,,,,,।
अँखिया में लोर भरी बेदना बिटोरबऽ
छतिया प मुक्का मारी चाहे सिर फोरबऽ
गछिया चाहे तूँ लगइबऽ अंगनइया,
चिरईंया तोहार,,,,,।
माई के हँकारल निष्फल भइया के पुकारल
लेई के कटोरी मैदा भउजी के दुलारल
कुश के अंगना बिछइबऽ चटईया,
चिरईया तोहार,,,,।
जखनी देखाए लागी पुरबवा में लाली
बकसा दिआए लागी हाथे हाथे हाली
पीर दिही चाहे साली भीतर घइया,
चिरईंया तोहार,,,,,,।
थके प्यासे को पानी पिलाता
खेला किया है तुम इस गली में, गली से तुम अब क्यों डर गया है
मौत तो आएगी एक दिन सोच लो, मौत से पहले क्यों मर गया है।
कोई किसी को निगल न लेगा, लिखा नसीब भी बदल ना देगा
आती है आंधियांँ आई नहीं है, पतझड़ से पहले बिखर गया है।
किसी की आबरू से ना खेलो तुम, मांँ औ बहनों के लिए जीओ तुम
खुदा तुम्हें भी दो हाथ दिया है, और होथों को लेकर मुकर गया है।
किया क्या है तुम दिए हाथों से, लूटा नहीं तो भला भी किया क्या
थके -प्यासों को पानी पिलाता, नजरों से तुम यार उतर गया है।
गुनाहों के आगे झुक जाना कभी अच्छा नहीं होता
जुर्म इस बार भी उनका था, समय से लड़ नहीं पाए
समय से जाग नहीं पाए औ समय से अड़ नहीं पाए।
गुनाहों के आगे झुक जाना कभी अच्छा नहीं होता
समय से मुड़ जाना था औ समय से मुड़ नहीं पाए।
हार गयी बिटिया रानी, जोकि दरिंदे रात में आए थे
समय से दूर नहीं भागे औ समय से उठ नहीं पाए।
पूछो तुम उन आकाओं से यहांँ नाग क्यों पलते हैं
समय से ईंट दे मारते जो समय से मार नहीं पाए।
अफसोस की कविता लिख रहे हैं सचेत हो जाएंँ
कहना नहीं होगा कि हम समय से लड़ नहीं पाए।
बच्चे आंगन में नाव बनाए रहते हैं
बच्चे अच्छे हैं प्रभाव बनाए रहते हैं
आँसू बहते हैं जो घाव बनाए रहते हैं
हम हैं आपस में जो टूटते रहते हैं
हमारे विश्वास भी ये उठते रहते हैं
बच्चे आंगन में नाव बनाए रहते हैं
आंँसू बहते हैं जो घाव बनाए रहते हैं।
बच्चे किसी की आँखों में जा बसते हैं
रोते हैं हम तो वे भी यारों बिलखते हैं
बच्चे खुशियों के गांँव बसाए रहते हैं
आँसू बहते हैं जो घाव बनाए रहते हैं।
हम रहते जो मिलकर उन बच्चों जैसा
अपना जीवन भी होता उन बच्चों जैसा
बच्चे हँसते स्वभाव बनाए रहते हैं
आँसू बहते हैं जो घाव बनाए रहते हैं।
शहर में
शहर में अकस्मात् धुआंँ उठ जाए तो समझो खामियांँ तुम्हारी है
जब पतवार हाथ से कभी छूट जाए तो समझो खामियांँ तुम्हारी है
जब बेटियांँ रात में सोयी लूट जाए तो समझो खामियांँ तुम्हारी है
मल्लाह है कि अपनी जिम्मेवारी गैर पर नहीं छोड़ता है कभी भी
जब एतबार में आबरू लूट जाए तो समझो खामियांँ तुम्हारी है
तुम भाग नहीं सकते कहकर कि हममें कोई कही कमियांँ नहीं थी
शहर में अकस्मात् धुआंँ उठ जाए तो समझो खामियांँ तुम्हारी है
किसी के जगते, दीप तले अंधेरा कभी होता है यह मानने की बात है
सोयी जिंदगी यदि भरोसे में उठ जाए तो समझो खामियांँ तुम्हारी है
लोग सियासत करते हैं जिंदगी के लिए, सुबह देखेंगे हम जगते-जगते
हिफाजत तुम अगर किसी को दे नहीं पाए तो समझो खामियांँ तुम्हारी है
तुम्हारे आदमी तुम्हें विश्वास में लिए धोखा देते रहे, हर किसी को रूलाते भी
तुमने उन सभी का कभी चीत्कार नहीं सुना तो समझो खामियांँ तुम्हारी है।
बेटी ट्रेनी डॉक्टर
कैसे लिखूं
तुम्हारे साथ
उस रात नहीं हुआ – बलात्कार
सेमिनार हॉल में अकेली सोयी थी इत्मीनान
नहीं पता था तुम्हें, आएगा जान लेने हैवान
जुझती/करती हुई घोर विरोध
हार गई तुम
शरीर के जख्म कहते हैं
अंतिम सांस तक विरोध करती रही
पर, नोचता रहा हैवान
इतना कि तन पर कपड़े नहीं रहे
लूट गया आबरू
जिसने देखा उसने यही कहा
हाथ, पांव, और पसली सभी टूटे थे
था कहांँ कुछ, सब कुछ उसके लूटे थे
लेकिन ब्लूटूथ हेडसेट दरिंदे के छूटे थे
वह थी ही नहीं इस दुनिया में
बेटी, फिर भी तेरे शव से
माँ-पिता को मिलाने देने में किया गया विलंब
पोस्ट मार्टम में हुआ विलंब
विलंब ही विलंब
यह विलंब
साक्ष्य मिटाने के लिए या जुटाने के लिए
आँखें जानने के लिए आज भी हो रही हैं – नम
यह हॉस्पिटल की शिघ्रता है या यही है सिस्टम
बेटी ट्रेनी डॉक्टर
अब सबकी नजरें
जाँच में जुटी सी.बी.आई.की ओर
लगी है ।
भूख के अंगार में
धरमे करमववा आ नदिया के धार में,
लगइहऽ पार ना,
माई बाबू के जुवार में, लगइहऽ पार ना,
माई बाबू,,,,।
घरवे में तीरथ करिहऽ घरवे में परिहऽ
माई आ बाबू के हो जीवनवा संँवरिहऽ
छोड़ीहऽ ना नइया कबो बीचे मझधार में,
लगइहऽ पार ना, माई बाबू के जुवार में ,,,,,।
जवन माई बाबू नाहीं कबहूँ घिनइले
अगते खिआ के बचल तवने उ खइले
छोड़ीहऽ ना बेरा आई त भूख के अंगार में,
लगइहऽ पार ना, माई बाबू के जुवार में,,,,।
रोअँवा जुड़ाई तऽ अशीशवा हो लागी
जिनिगी के कुल्ही गरदीशवा हो भागी
हाथवा पकड़ी पार करिहऽ अन्हार में,
लगइहऽ पार ना, माई बाबू के जुवार में,,,,।
भूख और प्यास के बीच
भूख और प्यास के बीच अमीरी की बात नहीं होती
तेरी कोठियांँ भरी है सौदा गिरी की बात नहीं होती
जरूरत मंदों की हाय लगी तो तुम कहीं का नहीं रहेगा
नादान दिल वालों के आगे फकीरी की बात नहीं होती।
बहरे लोग दीवार की बात करते हैं शान से मकान से
देखा नहीं है उन्हें कभी मैंने बोलते हुए खुले इमान से
दर्पण लगाए रखते हैं दरवाजे पर अपने चेहरे के लिए
टकरा कर टूट जाते हैं कभी भी कहीं आंँधी तूफान से।
गैरों के लिए भी जीना चाहिए यह अब तय करना होगा
वक्त बहुत नाज़ुक है मगर सुख दुख से गुजरना होगा
आँसू से छलछला गई हैं पुतलियांँ कह नहीं पाती अपनी
हम भागते रहे तो भागते रहे, गैरों के लिए ठहरना होगा।
चाहे जैसे भी हो
देश की मांओं
अपने बच्चे के ललाट पर
आशीर्वाद स्वरूप
काले काजल लगाओ
कि वह किसी की नजर से रहे कोसों दूर
कि कोई उससे उसकी जाति नहीं पूछे
कि उससे कोई कुछ पूछे भी तो
वह बताए तुम्हारे दूध की कीमत
एक मांँ की पहचान
माँ कैसे नहीं घृणा करती किसी के बच्चे से
व्यवहार की दुनिया कितनी अच्छी होती है
भेदभाव की कोई चोट नहीं देती
जिंदगी में मिलती है सुगंधा की महक
तुम्हारी यही महक
लज्जित कर सके सियासत की चाल
जहांँ सियासत फैलाती है मकर जाला
उस मकर जाल में फंँसी होती है जिंदगी
चाहे जैसे भी हो
देश की मांँओं को इस फँसे बिहड से अपने बच्चों की जिंदगी को निकालना ही होगा।
गर्म लोहे की कविता
स्थिति अपने लोग बिगाड़ते हैं, स्थिति अपने लोग सम्हालते हैं
देखा है इतिहास के पन्ने, कांटे डालने वाले कांटे ही कांटे डालते हैं
जरा-सी भी मानवता होती तो आज यह स्थिति कभी नहीं आती
गैर के दीये पर भरोसा मत रखना, दीये अपने ही उजाले लाते हैं
राह बीच का क्या निकालेंगे और वो चलने कहांँ से देंगे जिंदगी में
सम्भल कर रहना उन रहबरों से यारों नाग भी तो वही पालते हैं
उम्मीद अपने बाजुओं पर रख, गर्म लोहे पीट कर जीना सीख ले
भूख की धधकती भट्टी में कल डाले थे, आज भी वही डालते हैं।
लेकिन मुझे तो गर्व है अब आदमी होने में
शहर आज भी सुलग रहा है उस कोने में
लेकिन मुझे तो गर्व है अब आदमी होने में
दौलत ओहते सभी एक दिन चले जाते हैं
पर लग गये हैं हम आग बुझाने प्रेम बोने में
परिंदे उसूल की बातें करने लगे हैं मेरे गांँव में
कोई फायदा भी नहीं है यहांँ नफरत ढोने में
तुम भी जब आओ बंदे बाहर से अपने गांँव
लग जाओ खुले दिल से विशुद्ध प्रेम बोने में
किसी की अर्थी तुम्हारी याद लेती जाएगी
कि तुमने लहू दिया है गांँव को गांँव होने में।
सिंदूर लगाते हैं दर्पण लिए
सावन में फुहार नयनों में इंतजार ढूंँढ़ लेना
लगते नहीं हैं अचछे अपने घर-बार ढूंँढ़ लेना
ऐसे कोई दर्द देता है क्या कह कर आएंगे
टूट रहा है अंतस् से जीवन का तार ढूंँढ़ लेना
पुछोगे कैसे यह तन सूखा तुम्हारा कोमल
तुम दे गए मेरे नैनों में आँसू धार ढूंँढ़ लेना
उधर कोयल कुकती है इधर हम तड़पते हैं
बिजली भी कड़कती है बार-बार ढूंँढ़ लेना
सिंदूर लगाते हैं दर्पण लिए तेरे नाम का हम
खुशी मिली है या दर्द का संसार ढूंँढ़ लेना।
जिंदगी कहती हैं
लगता है ज्यादा दिन दिए किराया हो गया
अपने ही घर में आदमी अब पराया हो गया
सोचा था दिन बिताएंगे बसेरे में सुख से हम
चाय नहीं नसीब में बहुत दिन खाया हो गया
सारे कमरे गिन गिन कर बनाये थे सोचकर
कमरों से बेदाखिल का दर्द यह नया हो गया
बेटे बदल गये जहां तो बहू क्या देगी पानी हमें
जिंदगी कहती है व्यर्थ तेरा कमाया हो गया
बूढ़े बरगद पर आते हैं अभी भी परिंदे दूर से
कहते हैं सीने में दर्द तेरा छिपाया हो गया?
अपने लिए जीए हैं कभी, कैसे कहूंँ उन से
पड़ोसी से बहुत दिन गले मिलाया हो गया।
हम पिता के गांँव से होकर आ रहे हैं
हम पिता के गांँव से होकर आ रहे हैं
हम दादी की गोद में सोकर आ रहे हैं
कठोर हृदय के जो भी लोग मिले मुझे
उनके हृदय में प्रेम बो कर आ रहे हैं।
पिछले साल कितने को बदल आये थे
वो हँसते मिले जिन्हें हम समझाये थे
बस्ती के लोग बहुत बदल गये हैं अब
उनके प्रेम में हम भी भींगकर आये थे।
साहित्य की क्षेत्र में कारोबारी आ गये हैं
साहित्य की क्षेत्र में कारोबारी आ गये हैं
हम ऐसे ही छापेंगे, बाजारी आ गये हैं।
कहते हैं कि एक पेज देंगे कम है क्या
हमारे जैसे औरों में कोई दम है क्या।
लेकिन लेखकीय आपको तो लेना होगा
भाई हमारा कांटों का क्यों बिछौना होगा।
हमारे भी बाल बच्चे हैं उनकी रोटी है
यह मामला बड़ी नहीं बल्कि छोटी है।
लेखनी पकड़े हैं तो हौसला बड़ा कीजिए
सहयोगियों के साथ हौसला खड़ा कीजिए।
चाहेंगे तो हम आपको पुरस्कार दिलाएंगे
आप भी अजीब जनाब खुलेंगे मुस्कराएंगे।
हमें खुशी है सोने को लोग तपाने लगे हैं
हमें लोग दीया समझ कर बुझाने लगे हैं
इधर – उधर की बातों में उलझाने लगे हैं
शायद उन्हें पता नहीं अखलाक हैं हम
जख्म पर दोस्त भी नमक लगाने लगे हैं
सबसे अलग मेरा यह हस्ताक्षर है अपना
पेंसिल की लकीर चुपके से मिटाने लगे हैं
दर्द तो औरों से ज्यादा अपने देते हैं यारों
दुनियादारी कुछ और ही निभाने लगें हैं
उन्हें पता होना चाहिए पत्थर जलता नहीं
हमें खुशी है सोने को लोग तपाने लगे हैं।
जहांँ कवि का होता है अपमान
जब कवि का अपमान होता है
कविता रोने लगती है
कुछ लोग हैं कि
खरीद लेते लेखनी का पूरा प्लेटफार्म
पैसे के बदौलत मार देते हैं – पालहथी
और ले लेते हैं महंथी
जो लिखेंगे छपेगी उनकी
यहीं कवि का हो जाता है अपमान
कवि के पास भाव है/पैसे का अभाव
कवि देखता है अंगार तो अंगार लिखता है
थाली खाली है तो भूख/हाहाकार लिखता है
कविता हृदय टटोलती है/कवि से बोलती है
तुम टूटो मत अपमान में
छोड़ दो उस हासिए को/जहाँ तेरा कोई सम्मान नहीं
जहांँ कवि का अपमान होता है/कविता रोने लगती है।
चहकती चिड़िया आग से बचाना मुल्क
जब नायक अपना दायित्व भूल जाए, तो
समझना चाहिए गर्त में जाएगी कहानी
जब नायक पियक्कड़ निकल जाए, तो
समझना चाहिए घर में बढ़ेगी परेशानी
जब नाविक अपनी नाव पर उंघने लगे,तो
समझना चाहिए डूबेगी अब नाव पानी
चहकती चिड़िया आग से बचाना मुल्क
जाकर लाना समुंदर से तुम चोच में पानी।
विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड
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