स्त्री | Stree Kavita
स्त्री
( Stree kavita )
स्त्री होकर स्त्री पर उपहास करती हो,
हैरानी होती है कि तुम तुच्छ विचारों में वास करती हो।
तुम भी उस तरुवर की शाखा हो,
जिस डाल कि मैं।
तुम भी अपने कार्य में
निपुण,
मैं भी अपने कार्य में संपूर्ण।
स्त्री होकर स्त्री पर उपहास करती हो,
हैरानी होती है कि तुम तुच्छ विचारों में वास करती हो।
बाबुल का छोड़ अंगना बांधी प्रीत संग सजना।
दोनों ही इस पथ पर चले फिर कहां रही असमानता।
क्यों अज्ञानता के पथ पर चलकर अपना सर्वनाश करती हो,
स्त्री होकर स्त्री पर उपहास करती हो,
हैरानी होती है कि तुम तुच्छ विचारों में वास करती हो।
दोनों ने प्रसव काल की सही है पीड़ा,
फिर क्यों खेलती हो उपहास की क्रीड़ा?।
फिर क्यों असमर्थ एक दूजे की खुशियों में खुश होना,
फिर क्यों अहम के भवन में बैठ कर रचती हो षड्यंत्र की रचना।
प्रतिपल दुविधा में रहकर क्यों तोड़ती हो सपना,
क्या ईर्ष्या द्वेष के गहनों से अच्छा लगता है तुम्हें सजना।
अफसोस
स्त्री होकर स्त्री पर उपहास करती हो,
हैरानी होती है तुम कि तुच्छ विचारों में वास करती हो।
लेखिका :-गीता पति ( प्रिया) उत्तराखंड