सुशील चन्द्र बाजपेयी की कविताएं | Sushil Chandra Bajpai Poetry
सपने अधूरे, होंगे पूरे
अब तक जितने सपने देखे,
कुछ पूरे, कुछ रहे अधूरे।
दिन में काम रात को देखा,
बनते हुये संवरते सपने।
किन्तु सुबह निद्रा से जागा,
देखा तभी बिगड़ते सपने।
चाहे जितना काम करें हम,
मनवांछित निष्कर्ष न निकले,
इसका मतलब, कुछ गड़बड़ है,
जिससे सपने रहे अधूरे।
सपने मुझको पूरे करने
मेहनत से, जी नहीं चुराना।
मन से लग के एक लक्ष्य ले,
आलस छोड़ तुरत लग जाना।
केवल कर्म हमारे वश में,
फल तो ईश्वर ही देता है,
नियति चक्र चलता ही रहता,
कल निश्चित हों सपने पूरे
बाल अध्ययन
मानव जन्म लिया है यदि तो,
आवश्यक बच्चों की पढ़ाई।
धर्मग्यान के साथ आधुनिक
विषयों की भी रहे पढ़ाई।
अपने अपने संस्कारों की,
शिक्षा तो मिलती है घर में।
मात-पिता की जिम्मेदारी,
हों बच्चे संस्कारित घर में।
कुछ ऐसे शिक्षालय भी हैं,
मानव मानव भेद सिखाएं।
उन्हें बांटने के खातिर ही,
स्पेशल उनकी शिक्षाएं।
यह तो उचित नहीं है शिक्षा,
ऐसी शिक्षा करे विखंडित।
देश एकता को ही तोड़े,
ऐसी शिक्षा तो हरजाई।
सार्थक शिक्षा देने की है,
सभ्य देश की जिम्मेदारी।
एकरूपता नहीं देश में,
जनता सरकारों से हारी।
गरीब बच्चे, अमीर बच्चे,
शिक्षालय में भेद बड़ा है।
अंकुश कैसे लग पायेगा,
विपक्ष में, मजबूत धड़ा है।
मुमकिन नहीं दिखाई देता,
नेताओं ने खोदी खाई।
एकरूपता कब आयेगी,
कैसे सबकी एक पढ़ाई।
संवादहीनता
घर घर यह संवाद चला है,
घर में क्यों संवादहीनता।
असर सभी पर पड़ा इधर है,
है खतरे में मानवीयता।
अभिप्रेषण अंतराल बढ़ गया,
मोबाइल में गहन घुसे सब।
आपस में ही बात नहीं है,
भोजन करना साथ नहीं अब।
एक समय था एक साथ सब,
एक समय पर भोजन करते।
इसके बाद एकत्रित होकर,
थोड़ी सी तो गपशप करते।
हो जाती थीं सबकी अपने,
मन की बातें, दिल की बातें।
मन में पलने वाले सपनों,
कल, आज और कल की बातें।
किन्तु आज के भौतिक युग में,
जैसे सब हो रहे पराये।
अपनेपन से दूर हो रहे,
इसे देख सुन जी घबराये।
ऐसी भी क्या आपाधापी,
अपनों खातिर समय नहीं है।
मशीन ही यदि बने हुये हैं
समग्र उन्नति उदय नहीं है।
प्यार का बाज़ार
एक जमाना ऐसा भी था,
एक झलक बच्चों की लेकर
पिता और परिवार देख कर,
रिश्ते तय हो जाया करते।
ना देखा उसने प्रियतम को,
ना देखी इसने महबूबा,
सप्तपदी के बाद मिले जब
पहली नज़र में दिल दे बैठे।
वो रिश्ते आजीवन निभते,
बने एक दूजे के खातिर,
कोयल गाती पंचम स्वर में,
माह सभी मधुमास हो गये।
अब तो खिला पिला कर बकरे,
मंडी में जैसे ले जाकर,
मोल भाव करवाया जाता,
लगभग वैसे हाल बन गये।
अपने पैर खड़े हो जाएं,
इधर बाप ने करी प्रतीक्षा,
मोलभाव करने को आतुर,
प्यार बजरिया खोले बैठे।
उधर एक ही बिजनेस हब में,
प्यार सुलभ, परवान चढ़ गया,
दोनों की ही रज़ा हो गई,
मिलन बिना रोजाना तड़पें।
इक ब्लैंकेट में दावत महफ़िल,
ह्वाट्सएप पर मिल गई सूचना,
मात पिता भी मजबूरी में,
टुकुर टुकुर संदेश पढ़ रहे।
जब अद्धड़ होने की बारी,
तीस पार की दशक प्रतीक्षा,
करते जाहिल हिन्दू ही हैं,
मुसलमान इनसे तो अच्छे।
सरेबजार प्यार का अवसर,
देते हो तो तुम ही भाई,
देख सुसंस्कृत परिवारों को,
समय पूर्व ही कर दो रिश्ते।
प्रभु से ऊपर बड़ा नियंता
तुम्हीं समझते शायद खुद को,
पहुंचा देते निज संतति को,
जब यौवन घट लगे सूखने।
बहुत बड़े हो भौतिकवादी,
पाश्च्य संस्कृति के अनुगामी,
लौटो फिर से नाती-पोतों,
के विवाह जीवित कर लेते।
ऐसा क्यों होता है अक्सर
झूठे हो जाते हैं हावी,
सत्य दबा कुचला रहता है।
बेजुबान हो जाना पड़ता,
ऐसा क्यों होता है अक्सर?
सत्य हाल जो लिख के भेजा,
कोई समस्या सुलझाने को।
धूल फांकती चिट्ठी पत्री,
व्यस्त बहुत सरकारी अफसर।
युवा देश के खाली बैठे,
गले पड़ी बेरोजगारी,
रिक्त हाथ को काम नहीं है,
बीबी रोज़ लगाती नश्तर।
कैसे किससे व्यथा कहूं मैं?
नहीं कोई है सुनने वाला,
बीच सड़क पर ढोल बजाऊं,
या फिर फूटा हुआ कनस्तर।
किसी समस्या को ले करके,
नेता करते लीपापोती,
समाधान हित व्याकुल मनवा,
रहा देखता इधर या उधर।
बाजारों की दूकानें भी,
अब तो हैं वीरान हो रहीं,
आॅनलाइन है दुकानदारी,
पोर्टल का है पहला नम्बर।
इससे तो पहले था अच्छा,
आवश्यक चीजों का विनिमय,
आपस में सब कर लेते थे,
वहीं ले चलें फिर से लश्कर।
जीना चाहते हैं!
जीना किसे नहीं है भाता, हर कोई तो जीना चाहे।
पालित पोषित छोड़ कुरुचियां, जीवन सुखी बनाओ ना।
प्रकृति चेतना जागृत होती, ब्रह्मकाल में रोजाना।
ब्रह्ममुहूर्त में जग जाओ तो, इसका लाभ उठाओ ना।
ध्यान करो व्यायाम करो तो, प्राणवायु भी मिल जाये।
देर रात तक जाग जाग कर, स्वास्थ्य नष्ट कर पाओ ना।
अंतरांग को कार्य संपादन हेतु समय भरपूर मिले।
अच्छा होगा जल्दी सोकर, ब्रह्मकाल उठ जाओ ना।
हो आहार शुद्ध सात्विक, विहार में भी संतुलन।
जीवन जीना सीखो खुद भी, औरों को सिखलाओ ना।
फिर क्या जीवन स्वस्थ सुखद हो और संग सहकार मिले।
जन जीवन में जागे अभिरुचि, प्रेरक बन कर आओ ना।
देवी दुर्गा की महिमा
नव संवत्सर आया है फिर,
आये नवरात्रों के दिन।
माता के नौ रूपों का हम,
निशि दिन करते आराधन।
दुष्टों के संहार हेतु ही
विविध रूप निज धारे हैं।
क्लिष्ट भयानक रूप संग ही
सौम्य करुण भी धारे हैं।
मां दुर्गा के नौ रूपों का
अभिनव रूप निराला है।
कृपा वारि बरसाती गौरी
माता सबसे आला है।
माता तो मां ही होती है,
शिशुवत यदि हम बन जायें।
श्रद्धानत हो करें समर्पण,
सब सुख जीवन में पायें।
हरती हर संताप मातु,
अभिनव माया ऐसी रचती।
संतानों की सब आशायें,
मनवांछित हो कर फलतीं।
जगत्मातु ही इस जीवन में,
मां, बेटी, बहना बन आती।
पत्नी रूप उसी का होता,
सारे संसाधन कर जाती।
धरती पर ही स्वर्ग रचित हो,
सारे सुख आमोद प्रमोद।
मूर्खमण्डली समझ न पाती,
मातु कृपा से सुखद सुयोग।
इहलोक संवरता तो है ही,
उस पार न जाने क्या होगा?
हर हाल कृपा अपनी मां की,
जो भी होगा, अच्छा होगा।
धन्यवाद प्रभु!
धन्यवाद प्रभु! आभारी हूं,
जो आये निज गेह।
मेरा नहीं, तुम्हारा ही सब,
बरसाया जो स्नेह।
तमस हो गया नष्ट सभी,
मन में छाया उजियारा।
मन में अब विश्वास जगा है,
होऊंगा भव पारा।
अपना जो कर तुम्हें समर्पित,
होता चिन्ता मुक्त।
दर्शन मिला, आज लगता है,
पूर्ण हुआ जो भुक्त।
इच्छा मुक्त हो गया लगता,
अब आई है बारी।
चरण-कमल-सेवा में रख लो,
अब मैं शरण तुम्हारी।
हृदय कमल पर युगल चरण धर,
मुहुर मुहुर मुसकाओ।
राधेजू संग फिर से कोई,
अभिनव रास रचाओ।
जल ही जीवन है
क्या कभी सुना है तुमने भी,
जल हेतु छिड़ेंगे युद्ध कभी।
जल ही जीवन है जीवों का,
मानोगे तुम भी यही तभी।
बिगड़े सब कर्म तुम्हारे हैं,
बिगड़ा है प्रकृति संतुलन भी।
अति दोहन कर न पसीजे तुम,
धरती माता के क्रंदन से।
था शीश मुकुट हिमशिखरों का,
माता का, जो भी हुआ नष्ट।
कचरा फैलाया जगह जगह,
करके गौरव को नष्ट भ्रष्ट।
जल, पंचभूत का महाघटक,
संतुलन जब कभी बिगड़ेगा।
बूंदों बूंदों को तरसोगे,
जन जन आपस में झगड़ेगा।
होकर सचेत अब कम से कम,
आवश्यकता भर उपभोग करो।
जल बिन जीवन का नहीं योग,
जल संरक्षण के नये प्रयोग करो।
उम्मीदों का चिराग
जलाए रखना है उम्मीदों का चिराग,
देखना है मुझे आपका हौसला।
कुछ सयाने खड़े आपके सामने,
हौसला इतना खुद को समझते खुदा।
है समझ देखनी अक्ल भी देखनी,
खुद को समझा है किस अदद चूतिया।
जैसे सारी अकल है उन्हीं को मिली।
बरगलाते हैं जैसै कि कोई गधा।
थे पुरखे तुम्हारे तो बहके नहीं,
रहे हिलमिल सदा, भाईचारा बना।
क्या किसी ने बताया तुम्हें आजतक,
एक ही खून उनका तुम्हारा यहां।
है उम्मीद मुझको, कभी न कभी,
है बदल जायेगी यह विषैली फ़िज़ा।
भारत का परचम लहराएं
मिलकर अपना दम दिखलाएं।
भारत का परचम लहराएं।
खड़े अकेले कब से हो मायूसी ओढ़े,
इधर अकेले इंतज़ार करते हैं हम।
आओ! दोनों मिलें, पछाड़ें,
क्यों न सामने हो दस का दम।
दस ही क्यों? हम भीमपुत्र हैं,
जिनका दस सहस्त्र कुंजर बल।
लेकिन बजरंगी सम हमको,
पता नहीं है, अपना ही बल।
देखा नहीं! महाकुंभ में,
हमने अपना शौर्य दिखाया।
दुबई जा मेरे बच्चों ने,
भारत का परचम लहराया।
शक्ति बहुत है, लेकिन शायद,
अभिशापित हैं भारतवासी।
याद दिलाना पड़ता उनको,
तभी भागती गहन उदासी।
कभी अकेले किसी चने को,
भाड़ फोड़ते देखा तुमने।
आओ अब दोनों ही मिलके,
भाग्य मिलायें अपने अपने।
फिर तो क्रान्ति घटित ही होगी,
दो शरीर पर प्राण एक जब।
धमाचौकड़ी मच जाये तब,
सारी दुनिया देखे करतब।
राम कृष्ण शिव अवतारों की,
यह पावन धरती है मेरी।
एक बार फिर से बजनी है,
सत्य सनातन की रणभेरी।
पुनः उल्लसित हो मिलजुल कर,
आओ मिलकर अर्ध्य चढ़ायें।
बुद्धि विवेक शौर्य के बल पर,
माता का डंका बजवाएं।
कल तेरा है
क्यों बैठे हो मुंह लटकाये,
भूलो सब बीती घटनाएं।
उठकर हो सन्नद्ध चलें अब,
मिलजुल कर रास्ता बनायें।
कितने आते हैं उदधि ज्वार,
जीवन भी नहीं अछूता है।
हारता नहीं उदधि उर में,
नाविक का जीवन बीता है।
तू है भारत की युवाशक्ति,
तेरे अन्दर हैं ज्वालाएं।
तू अपने को पहचान स्वयं,
पूरी होंगी सब आशाएं।
टाटा, बिड़ला या अंबानी,
करते हैं जन-जन की सेवा,
पीएम. सीएम. नेतानगरी,
सेवा कर ही खाते मेवा।
साहस यदि न हो एकला,
दूजे को भी गले लगायें।
एक एक मिल ग्यारह होते,
अपार होती संभावनाएं।
सबसे बड़ा काम सेवा का,
काम न कोई होता छोटा।
छोटा-मोटा काम पकड़ लो,
नहीं काम का कोई टोंटा।
आज नहीं तो कल तेरा है,
भले शुरू में विफलताएं।
एकनिष्ठ हो, लगे रहे यदि,
आगे खड़ी हैं सफलताएं।
चित्रानुभूति
गहरे सागर पैठ के

श्यामल आनन नीलनयन में
कुछ तीखा सम्मोहन सा है,
नज़र टिकी रह जाये।
अधरों पर है बसी सहजता
जिसमें है अपनत्व भरा,
मनमोहक दिखालाए।
तेरी आंखों में है सागर
लगता मुझे बहुत है गहरा,
लहर लहर लहराए।
मन करता है
क्यों ना हम भी,
गहरे डूबे औ उतराएं।
मेरा तो विश्वास प्रबल है
जब तू मेरा खेवनहारा,
फिर कैसे डर जाएं।
निश्चित तो है कभी न कभी
किसी न किसी दिन,
तू भवसागर पार कराए।
देखो, ज़रा ध्यान से देखो
मिल जाएं नैनों से नैना,
सम्मोहित हो जाएं।
गमों की धूप
जीवन के अंतिम पड़ाव तक,
धूप गमों की सहते हुये।
शायद उनकी नज़रों में हम,
कुछ अधिक ही सस्ते हुये।
सब महिमा है अपने प्रभु की,
कुछ तो हैं प्रारब्ध मेरे।
सदा झेलता रहा आज तक,
सारे ही ग़म हंसते हुए।
जो भी आयेगा सह लेंगे,
देखें किसमें कितना दम।
समझा नहीं आज तक मैंने,
कभी स्वयं को फंसते हुये।
हम ही एक नहीं दुनिया में,
लाखों नहीं करोड़ों में।
धूप गमों की रहे झेलते,
देखा नहीं लरज़ते हुये।
लेकिन ग्यात मुझे इतना है,
हर सिक्के के दो पहलू।
धूप-छांव का साथ सदा से,
आगे पीछे चलते हुये।
सर्दी जुकाम से पीड़ित रहते,
एसी की जिनको आदत।
खुली वायु मौसम में उनको,
देखा कभी टहलते हुये!
नया दिन है : नया सवेरा
(२७ फरवरी,२०२५: गुरुवार)
आज नया दिन नया सवेरा।
कल तक की तो बात है।
भूमि के हजारवें भाग में,
आधे से कुछ ज्यादा ही तो
लोग हुये एक जगह एकत्रित।
डम-डम डंका बजा हुआ था,
सत्य सनातन का हुजूम था,
जनसमूह था, संतवृंद थे,
एक जगह स्नान किया था,
अर्चन वंदन मंत्रोच्चारित।
सनातनी का पावन उत्सव,
संगम तट पर हुआ बसेरा।
आज नया दिन नया सवेरा।
कोई जाति भेद नहीं था,
वर्गभेद था पड़ा रुआंसा।
जितने भी आये उस स्थल,
कूट कूटकर भरी थी आस्था।
सबमें ही विश्वास प्रबल था,
योगी मोदी नायक पर।
एक नया अवतार पुलिस का
कुशल प्रशासन चप्पे चप्पे
सद्व्यवहारी नज़र बलों की
रही थी सारी आवक पर।
सबके मन में जोश भरा था,
ना था तेरा, ना था मेरा।
आज नया दिन नया सवेरा।
पूरी दुनिया देख रही थी,
सनातनी जयघोष सुना था,
थे आश्चर्यचकित बहुतेरे,
इतना कुशल प्रबंधन कैसे?
कहीं घटित हो सके न घटना,
केवल भारत में ही संभव।
दूध के पूत पालने में ही,
आगे देखो क्या क्या होगा,
राम अवध में जमे हुये हैं,
इधर बनारस में प्रलयंकर
निश्चित दुष्टों का है पराभव।
भूत निविड़ तम से आवेष्टित,
मात्र कल्पना सुखद भविष्यत,
वर्तमान मायावी फिर भी
मन में किरणपुंज का डेरा।
आज नया दिन नया सवेरा।
जियो और जीने दो
सुख समृद्धि के साधन सब हों,
किन्तु स्वयं खो जायें।
पाटल पुष्पों की शय्या हो,
फिर भी नींद न आये।
विलासिता बाधित करती है,
कर्मठता जीवन की।
एक दिन दु:खदायी बनती है,
सुख प्रवृत्ति नर तन की।
यांत्रिक भौतिकता से पालित
पोषित जो हैं होते।
किंचित प्रतिकूलता प्राप्त कर,
सिसक सिसक कर रोते।
सब साधन उपलब्ध किन्तु,
फिर भी लगता कुछ कम है।
सुखानुभूति में बाधक बनता,
असंतोष विभ्रम है।
सुख का बाहर से नहीं उत्स,
अंतर से फूटा करता।
स्थितियों के परिवर्तन से,
विश्वास न टूटा करता।
आत्महनन कर प्राप्त सभी सुख,
दु:ख का कारण बनते।
पुष्पों को पगतल मर्दित कर,
भ्रमवश कंटक चुनते।
प्रकृति प्रदत्त उपादानों की
करके सदा उपेक्षा।
कृत्रिम उपकरणों से संभव,
कब तक होगी रक्षा।
प्रकृति विरद्धाचरण प्रमाणित
करता नहीं प्रगति को।
नियमों में निपात कब करते
देखा गया नियति को।
भौतिकता की आॅख-मिचौनी,
कुछ पल बहला लेगी।
सीमा के अतिक्रमण ही होते
प्रकृति भी बदला देगी।
ग्यान हीन विग्यान निमंत्रित,
रण ताण्डव कर लेगा।
मानव सृष्टि सुरक्षा पर ही
प्रश्न चिन्ह धर देगा।
यह सब कुछ इसलिये हमारा
सुख असीम हो जाये।
भले ही जग में दु:ख ही दु:ख
का सागर ही लहराये।
केन्द्रीकृत सुख की यह ज्वाला,
दु:ख का कारण बनती।
कितने नये रक्तबीजों को
विविध रुप में जनती।
जीना है तो औरों को भी
जीवन रस पीने दो।
सुखी रहो सुख बांट बांट कर
जियो और जीने दो।
दुखियों से थोड़ा दु:ख लेकर,
कुछ अपना सुख देना।
विनिमय में भी विनम्रता हो,
है यथार्थ जी लेना।
करो पाप से घृणा किंतु
कुत्सित छलनाएं आती हैं,
कृत्रिम रूप संवार कर।
सहज नहीं स्थिर रह पाना,
मन को उन्हें निहार कर।
पाप पंक में जो फंसता है,
निकल नहीं वह पाये।
जाने कब संगति के कारण,
वह उसमें रम जाये।
उसे सुधरने का अवसर दे,
पतन मार्ग छुड़वायें।
घृणा पाप से करो किन्तु,
पापी प्रति दया दिखायें।
पता नहीं किसके जीवन में,
क्रान्ति घटित हो जाये।
निंदित कर्म छोड़कर इक दिन,
बाल्मीकि बन जाये।
पूर्व जन्म के प्रारब्धों वश,
फंसते विधि के लेखी।
जीवन के उत्थान पतन की,
घटनाएं बहु देखीं।
नाट्य मंच के अभिनेता सब,
कितने बदल मुखौटे।
तरह तरह की रहे भूमिका,
धीर वीर या खोटे।
सब समाज के अंग रहे हैं,
त्याज्य न कोई लगता।
पापी से कर घृणा कोई भी,
बड़ी भूल वह करता।
रखकर मन में धैर्य उसे,
सत्संगति का अवसर हो।
निश्चित होगा विरत पाप से,
यदि प्रबुद्ध का वर हो।
चाहत चंचल मन की
मन के अन्दर दबी पड़ी हैं,
छिपी हुई चाहतें बहुत हैं।
किन्तु सभी पूरी ना होती,
चाहे जितनी आश लगाएं।
मन तो मन है, चंचल रहना,
और कुलांचे भरना अनगिन,
नियति सदा से रहती आई,
पूर्ण न हों सारी इच्छाएं।
चाहत एक पूर्ण हो जाती,
तभी दूसरी आ जाती है,
उसे पूर्ण करने को आतुर,
कौन इसे कैसे समझाए।
ये भी ले लूं, वह मिल जाये,
छलनाओं में रहे बावरा,
पागल मन तुरंग जैसे हो,
इधर उधर दौड़े भटकाए।
कृत्रिम रूपों में सजधज कर,
कुत्सित छलनाएं हैं आतीं,
सहज नहीं स्थिर रह पाना,
बार बार मन को ललचाएं।
सभी चाहतें पूर्ण न होतीं,
प्रभु पर पूर्ण आस्था रखकर,
अपना कर्म रहे निज वश में,
सन्तोषी जीवन अपनाएं।

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