विनय साग़र जायसवाल की ग़ज़लें | Vinay Sagar Jaiswal Poetry
दर ब दर फिरता रहा
जुस्तजू-ऐ-शौक लेकर दर ब दर फिरता रहा
मैं हथेली पर लिये ख़ून -ए-जिगर फिरता रहा
यह मिरे अश्आर मेरी फ़िक्र की परवाज़ थी
मुद्दतों अखबार की बनकर ख़बर फिरता रहा
जाने किस किस को थीं मेरे नाम में दिलचस्पियाँ
मेरे नक़्श-ए-पा लिये हर इक बशर फिरता रहा
हुस्न ने बेपर्दा होकर क्या दिये मुझको गुलाब
सबकी आँखों में मिरा ज़ौक-ए-हुनर फिरता रहा
तंग नज़रों की सियासत ने किया रुसवा मगर
अंजुमन दर अंजुमन मैं बेख़बर फिरता रहा
सिर्फ़ तेरी याद तेरी आरज़ू होंठो पे थी
सारी दुनिया भूलकर शाम-ओ-सहर फिरता रहा
जाने कितनी फूल सी आँखें मिरे चेहरे पे थीं
मैं दयार-ए-तशनगी में चश्मे-तर फिरता रहा
यह थी मेरे प्यार के अंदाज़ की “साग़र “कशिश
मेरी यादों में मगन वो उम्र भर फिरता रहा
इश्क़ के अंजाम से
रोज़ आ जाते हैं वो कोई न कोई काम से
हैं नहीं वाक़िफ वो शायद इश्क़ के अंजाम से
कर दिया मजबूर उसने अपनी शर्तों पर मुझे
लोग अब पहचानते हैं मुझको उसके नाम से
उसका ख़त लाकर कि मुझको जब से क़ासिद ने दिया
होश काबू में नहीं मेरा है इस पैग़ाम से
मेहरबानी उनकी मुझ पर दिन ब दिन बढ़ने लगी
कट रही है ज़िन्दगी मेरी बड़े आराम से
चढ़ गया है उसको मेरी क़ुर्बतों का अब नशा
मुंतजिर रहने लगा मेरे लिए वो शाम से
शायरी के शौक ने मशहूर इतना कर दिया
इस से पहले शहर में थे हम बहुत गुमनाम से
इसलिए उस शोख से साग़र किनारा कर लिया
उसने चाहा तोड़ लूँ रिश्ता मैं खास- ओ- आम से
दो क़ाफ़ियों में ग़ज़ल ( 4 )
मुफ़लिसी से मेरी यूँ चालाकियाँ चलता रहा
ज़हनो-दिल में वो मेरे ख़ुद्दारियाँ भरता रहा
मैं करम के वास्ते करता था जिससे मिन्नतें
वो मेरी तक़दीर में दुश्वारियाँ लिखता रहा
मोतियों के शहर में था तो मेरा भी कारवाँ
फिर भला क्यों रेत से मैं सीपियाँ चुनता रहा
कहने को मुश्किल नहीं था दोस्तो मेरा सफ़र
मेरा माज़ी राह में चिंगारियाँ रखता रहा
दिल की हर दहलीज़ पर थे नफ़रतों के ज़ाविये
मैं तो हर इक रहगुज़र के दर्मियाँ डरता रहा
ख़त के हर अल्फाज़ में थीं इस कदर चिंगारियाँ
मेरे दिल के साथ मेरा आशियाँ जलता रहा
कोई आकर छेड़़ता रहता था रोज़ाना मुझे
मैं फ़कत दामन की अपने धज्जियाँ सिलता रहा
जब भी बाँहों में समेटे चूमना चाहा उसे
मेरे होंठो पर हमेशा उंगलियाँ धरता रहा
जीत की ख़्वाहिश थी साग़र उसके दिल में इस कदर
अपनी हारों पर मेरी क़ुर्बानियाँ करता रहा
दो क़ाफ़ियों में ग़ज़ल ( 3 )
ज़मीने-दिल पे तो हम कहकशां भी ला देंगे
तमाम लोग यहाँ उंगलियां उठा देंगै
कहीं नमक तो कहीं मिर्चियां मिला देंगे
दिलों में लोग यूँ हीं दूरियां बढ़ा देंगे
ज़माना हमको भी मुजरिम क़रार दे देगा
किसी से ऐसी कोई दास्तां लिखा देंगे
किसी को सच की भी अब पैरवी नहीं भाती
ये सारे लोग तो बस हां में हां मिला देंगे
हमारी बात पे तुम ऐतबार जो कर लो
अकेले हम हैं मगर कारवां बना देंगे
ये वक़्त वक़्त की बातें हैं सोचते क्या हो
ये बेज़बान भी कल को ज़बां चला देंगे
क़सम तुम्हारी मुहब्बत की हमको है साग़र
वफ़ा के फूलों से हम आशियां सजा देंगे
दो क़ाफ़ियों में ग़ज़ल ( 2 )
अगरचे इक घड़ी को मेरी यह तक़दीर सो जाती
किसी की ज़ुल्फ़ ही मेरे लिये शमशीर हो जाती
कहीं तो चैन से रहने नहीं देती है यह हमको
ये तेरी याद जो हर दिन नई इक पीर बो जाती
ख़ुदी को मार ही लेते ज़रा गर हम जहाँ वालो
हमारी आरज़ू उस वक़्त ही दिलगीर हो जाती
ये आहों की नदी बहने न दी आँखों से यूँ हमने
किताब-ए-दिल पे वो लिक्खी हुई तहरीर धो जाती
हमें भी बोलने की छूट जो कुछ आप दे देते
यक़ीनन ही मुअम्मे की वहीं तफसीर हो जाती
किसी के हुस्न की रानाइयों में यूँ नहीं डूबे
यही था डर हमें तेरी कहीं तस्वीर खो जाती
हमीं ने तोड़ दी तक़दीर की जंज़ीर ऐ *साग़र *
वगर्ना सोचिये इंसान की तदबीर सो जाती में
शमशीर — तलवार
तहरीर — लिखी हुई बात , आलेख
दिलगीर — उदास
तफ़सीर — व्याख्या, विवेचना
तदबीर — कोशिश, प्रयास
दो क़ाफ़ियों में ग़ज़ल ( 1 )
मुझ पे कितना बड़ा अहसान किया है तुमने
मुद्दतों बाद भी पहचान लिया है तुमने
इक जुदाई ही नहीं कितने ही ग़म दे डाले
मेरे जीने को ये सामान दिया है तुमने
बाद बरसों के सही तुम को समझ तो आया
मैं जो कहता था वो सब मान लिया है तुमने
ता क़यामत ही ये अहसान रहेगा मुझ पर
चाक मेरा जो गिरेबान सिया है तुमने
बेवफ़ा कहते हुए लोग चिढ़ाते हैं तुम्हें
ज़हर कितना ये मेरी जान पिया है तुमने
सारे अहबाब यही कहते हैं मुझसे साग़र
तंगहाली में भी ईमान जिया है तुमने
बुत तराशने वाले
ख़बर हो तुझको मेरा बुत तराशने वाले
खड़े हैं लोग मुझे फिर से मारने वाले
मैं उस मुक़ाम पे सदियों खड़ा रहा कैसे
जहाँ खड़े थे मेरा सर उतारने वाले
इसे ख़ुलूस मैं समझूँ या कोई साज़िश है
मुझी को पूजने आये हैं मारने वाले
मैं अपने जिस्म को कुछ तो लिबास दे देता
ज़रा ठहर मेरा पैकर तराशने वाले
मुझे चुका तू समझने की भूल मत करना
हज़ारों हाथ हैं मुझको संवारने वाले
हवायें और मुखालिफ़ कहीं न हो जायें
डरे हुए हैं ये कश्ती संभालने वाले
ये कैसा खेल है साग़र जो तूने खेला है
बिसात फिर से बिछाते हैं हारने वाले
तमाशा करता है
मेरे ख़यालों में आकर वो रोज़ तमाशा करता है
भूली बिसरी यादों से मुझको बहलाया करता है।
मुद्दत पहले इक दूजे पर जैसे प्यार लुटाते थे
वो मंज़र आँखों में मेरी हर दिन उभरा करता है
माना अब मिलने जुलने के मौक़े हाथ नहीं आते
लेकिन फोन के ज़रिए वो बातें रोज़ाना करता है
क़िस्मत से ही ऐसी मुहब्बत मिल पाती है दुनिया में
मुश्किल घड़ियों में भी मेरी हिम्मत बाँधा करता है
प्यार जताने की कोशिश में भूल नहीं तुम यह जाना
आँखें चुगली कर देती हैं जब कोई दिखावा करता
उसकी राहें तकने को मजबूर हुआ जाता हूँ मैं
वादा निभाने का वो इतना तगड़ा दावा करता है
ऐ साग़र किरदार मेरा है उसकी नज़रों में आला
कैसा भी माहौल हो वो पर मुझ पे भरोसा करता है
अँधेरी रात को
अँधेरी रात को इक पल में जगमगा दोगे
नक़ाब चेहरे से थोड़ा भी गर हटा दोगे
ज़रूर तुमको भी आयेगा लुत्फ़ जीने में
हमारे साथ क़दम से क़दम मिला दोगे
मैं तुमको प्यार की सौग़ात ऐसी दे दूँगा
तमाम उम्र यक़ीनन मुझे दुआ दोगे
उड़ान और भी मदमस्त होगी फिर मेरी
मुझे ज़रा सा जो तुम बढ़ के हौसला दोगे
हवास अपने मैं रख्खूँगा कैसे काबू में
शराबे-हुस्न मुझे रोज़ गर पिला दोगे
मिलेगी भटके मुसाफ़िर को किस तरह मंज़िल
हमारे नक़्शे-क़फ़े -पा अगर मिटा दोगे
पता चलेगी तुम्हें जब भी असलियत साग़र
गिला या शिकवा शिकायत सभी भुला दोगे
पराई चीज़
पराई चीज़ पे अधिकार कर नहीं सकते
इसीलिए ही उसे प्यार कर नहीं सकते
क़ुबूल दिल को न जब तक ये बात हो जाये
तमाम उम्र का इक़रार कर नहीं सकते
बग़ैर उसकी निगाहों में प्यार देखे हुए
कभी भी प्यार का इज़हार कर नहीं सकते
भरोसा हम पे ही कर के यहाँ वो आया है
कि ऐसे मोड़ पे इनकार कर नहीं सकते
उमीदवार कई और तुमसे पहले हैं
यूँ ताजदार तुम्हें यार कर नहीं सकते
बड़े जतन से बनाया महल है ख़्वाबों का
शिकस्त खा के भी मिस्मार कर नहीं सकते
उसे यक़ीन है साग़र हमारी चाहत पर
दग़ीला अपना ये किरदार कर नहीं सकते
फ़साने भर तक
हम भी ज़िंदा हैं यहाँ एक फ़साने भर तक
याद रख्खेगा हमें कौन ज़माने भर तक
अब किताबों में भला कौन खपाता ख़ुद को
पूछ होती है इन्हें घर में सजाने भर तक
जिसको रोते हुए यह उम्र हमारी गुज़री
वो चला साथ मगर रस्म निभाने भर तक
फिर पलट कर तो कभी हाल न पूछा हमसे
उसने साधा था हमें एक निशाने भर तक
अब तो गाँधी ओ जवाहर पे सियासत देखो
याद करते हैं उन्हें नाम भुनाने भर तक
वो सियासी था उसे ख़ूब हुनर आता था
जी हुज़ूरी पे रहा नाम कमाने भर तक
उसके हाथों का रहे सिर्फ़ खिलौना साग़र
खेल खेला था वो बस ख़ुद को हँसाने भर तक
खाली बोतल है खाली पैमाना
कौन लिख्खेगा दिल का अफ़साना
है अजब मुश्किलों में दीवाना
हुस्ने मतला —-
ऐसा बदला निज़ामे – मैख़ाना
खाली बोतल है खाली पैमाना
दाल आटे की फ़िक्र है हम को
भाव चढ़ने लगे हैं रोज़ाना
कैसे बच्चे पलें ग़रीबों के
ग़ौर इस पर भी कुछ तो फ़रमाना
यह सियासत है कुछ वज़ीरों की
रोज़ पड़ता है हम को ग़म खाना
इन वजीरों में औ’र रईसों में
अब मुनासिब नहीं है याराना
आह निकलेगी जब ग़रीबों की
काम देगा न कुछ दवा खाना
जाति धर्मों में बाँटने वालों
बंद करिये यूँ हम को लड़वाना
हम ने सौंपा है इन को सिंघासन
कोई साग़र ये इन को समझाना
अवसर कभी कभी
मिलते हैं ऐसे ज़ीस्त में अवसर कभी -कभी
होते हैं सर निगूंँ जो सितमगर कभी-कभी
यह सोच कर ही हम भी सफ़र पर निकल पड़े
पड़ता है रास्ते में समुंदर कभी-कभी
ख़ुद पर यक़ीन तुम भी कभी तो किया करो
आते हैं इस ज़मीं पे पयम्बर कभी-कभी
है सर पे इम्तिहान ज़रा यह भी सोचिये
देता नहीं है साथ मुक़द्दर कभी-कभी
शर्मिंदा तेरी बज़्म में होकर भी हमनशीं
पीना पड़ा है ज़हर का साग़र कभी-कभी
वो छत पे आके कर दें मुकम्मल ग़ज़ल मेरी
जागा किये हैं हम भी यूँ शब भर कभी-कभी
खो जाते थे निगाहों में इक दूसरे की हम
लेकिन हुए ये लम्हे मयस्सर कभी-कभी
साग़र ये दौर भी था हमारे नसीब में
आ जाते थे करीब वो छुपकर कभी-कभी
ज़ीस्त – जीवन
निगूँ – झुकना
हमारी और कुछ
खुल गईं आँखें हमारी और कुछ
जान लीं बातें तुम्हारी और कुछ
ज़ुल्फ़ उसने जब संँवारी और कुछ
छा गई हम पर ख़ुमारी और कुछ
आपके इल्ज़ाम सर आँखों पे हैं
है ख़ता मेरी ही सारी और कुछ
हम किसी भी तौर झुक पाये न जब
कर दिये फ़रमान जारी और कुछ
हौसले मेरी वफ़ा के देखकर
कर रहे हैं जांनिसारी और कुछ
मीरा या सुकरात से होते हुए
आ गई मेरी भी बारी और कुछ
आप के हाथों में पत्थर देखकर
कर गये हैं संगबारी और कुछ
पूछते हो आलम- ए – तन्हाइयां
तारे गिन गिन शब गुज़ारी और कुछ
अब तो साग़र साथ हर पल का रहे
तोड़ दी दुनिया से यारी और कुछ
इतनी मिन्नत से
इतनी मिन्नत से उसने खिलाया मुझे
लुत्फ़ ही लुत्फ़ खाने में आया मुझे
तोड़नी ही पड़ी मुझको अपनी क़सम
देके अपनी क़सम जो बुलाया मुझे
शहर में उसके मैं एक परदेसी था
अपनी गाड़ी से उसने घुमाया मुझे
सुब्हो कब हो गई कुछ पता ही नहीं
बातों बातों में ऐसा लुभाया मुझे
इत्तिफ़ाक़न किसी बज़्म में वो मिले
पास अपने हमेशा बिठाया मुझे
लड़खड़ाये क़दम मेरे उसने वहीं
हौसला देके आगे बढ़ाया मुझे
उसका अहसान मानूँ मैं साग़र न क्यों
ज़िंदगी का सलीक़ा सिखाया मुझे
नज़ारे कभी कभी
होते हैं दिल नशीन नज़ारे कभी-कभी
आ जाते हैं वो पास हमारे कभी-कभी
जी चाहता है पहलू से उठने न दूँ उन्हें
लगते हैं इस कदर ही वो प्यारे कभी-कभी
इस बात पर वो आज भी होते हैं ख़ुश बहुत
गेसू जो हमने उनके सँवारे कभी-कभी
महफ़ूज़ हर बला से रहें ता हयात वो
सदके़ यूँ हमने उनके उतारे कभी-कभी
नखरे ये दिल फ़रेब दिखाओ न इस कदर
खलते बहुत हैं नाज़ तुम्हारे कभी-कभी
मायूसियां न उनके तबस्सुम को लील लें
हम जीत कर भी उनसे हैं हारे कभी-कभी
हसरत ये बार- बार मेरे दिल में क्यों उठी
अपना मुझे वो कह के पुकारे कभी-कभी
आये जुनूने- इश्क़ में ऐसे मुक़ाम भी
अफ़सुर्दा देखे चाँद सितारे कभी-कभी
साग़र हमारे होश बग़ावत पे आ गये
ऐसे किये हैं उसने इशारे कभी-कभी
नज़ारे – दृश्य
हयात – जीवन
मुक़ाम – स्थान ठहरने का
अफ़सुर्दा – उदास
चिकने घड़े हैं
हमारे फ़ैसले होते कड़े हैं
अगरचे फ़ायदे इसमें बड़े हैं
जहाँ तुमने कहा था फिर मिलेंगे
उसी रस्ते में हम अब तक खड़े हैं
सुनाकर भी इन्हें हासिल नहीं कुछ
हमारे रहनुमा चिकने घड़े हैं
छुड़ाया लाख पर पीछा न छूटा
गले वो इस तरह आकर पड़े हैं
किसी के तंज़ छू पाये न हमको
कि अपने क़द में हम इतने बड़े हैं
अमीरों से उन्हें डरते ही देखा
ग़रीबी से जो रात-ओ-दिन लड़े हैं
जहाँ कह दो वहाँ चल देंगे साग़र
यहाँ पर कौन से पुरखे गड़े हैं
ये शहरे इश्क़ है
ये शहरे-इश्क़ है चलती यहाँ पे आन नहीं
कहाँ पे कौन झुके इसका कहीं गुमान नहीं
ये उम्र जिसकी गुज़ारी है ख़ैरख़्वाही में
वो एक शख़्स ही दिखता है मेहरबान नहीं
मिले थे और भी चेहरे हसीन मेले में
सिवाए उसके हमें तो किसी का ध्यान नहीं
हरेक बार ये कहते हो और बैठो ज़रा
तुम्हारे जैसा दिखा हमको मेज़बान नहीं
ख़ुलूस प्यार मुहब्बत से पेश आता है
अमीरे-हुस्न है फिर भी वो बदगुमान नहीं
किया है मेरी उमीदों का ख़ून यूँ उसने
कि उसके दामां पे आया कहीं निशान नहीं
वो ज़हनो-दिल पे यूँ क़ाबिज़ हुआ है ऐ- साग़र
कभी लगा नहीं मुझको वो दर्मियान नहीं
मज़े आ रहे हैं
करम जब से हम पर हुए हैं किसी के
मज़े आ रहे हैं हमें ज़िन्दगी के
पड़े हम को मँहगे वो पल दिल्लगी के
फँसे प्यार में हम जो इक अजनबी के
किया उसने दीवाना पल भर में मुझको
हुनर उस पे शायद हैं जादूगरी के
निगाहों से साग़र पिलाने लगे वो
मुक़द्दर जगे आज तशनालबी के
किसी के भी दिल को न मायूस छोड़ा
ज़माने थे अपने भी दरियादिली के
अंधेरे भी घबरा के भागे हुए हैं
क़दम जब से घर में पड़े चाँदनी के
हुई रोज़ जम कर मुहब्बत की बारिश
निखरने लगे रंग प्यासी नदी के
वो परदेस से लौटे जिस वक़्त साग़र
जलाये तभी दीप दीपावली के
है ये रंग-ए-बहार होली का
है ये रंग-ए-बहार होली का
चल पड़ा कारोबार होली का
देखते ही मुझे कहा उसने
देखो आया शिकार होली का
उसने डाला है रंग यूँ मुझपर
चढ़ गया है ख़ुमार होली का
भूल जाओ सभी गिले शिकवे
यह तक़ाज़ा है यार होली का
इसको पानी हुज़ूर मत कहिये
इसमें शामिल है प्यार होली का
इसमें रहता बदन का होश नहीं
है ये ऐसा बुखार होली का
मेरा महबूब दूर है मुझसे
था बहुत इंतज़ार होली का
बाद मिन्नत के उनसे ऐ साग़र
हो रहा है क़रार होली का
ख़ुमार होली में
अजीब रंग का देखा ख़ुमार होली में
नशे में झूमता सारा दयार होली में
हमारे रंग में भीगे तो भीगते ही रहे
रहा न ख़ुद पे उन्हें इख़्तियार होली में
नशा था हम पे मुहब्बत का इस कदर तारी
लगाया रंग उन्हें बेशुमार होली में
इसी ख़ुशी में हूँ डूबा हुआ अभी तक मैं
हुए वो शौक से मेरा शिकार होली में
ख़ुलूस प्यार मुहब्बत सभी लुटाते हैं
बना रहे ये सदा ऐतबार होली में
उदास चेहरों पे लाकर हँसी ही मानेंगे
अहद ये हमने किया अब की यार होली में
वो आ रहे हैं लगाने को रंग ऐ- साग़र
उड़ा हुआ है यूँ सब्र-ओ-क़रार होली में
महसूस हुआ
आज हमें हर ग़म अपना ही बेगाना महसूस हुआ
उनके ख़़त का हर आँसू इक अफ़साना महसूस हुआ
प्यार भरे रंगीं वादों का ख़ून हुआ जिस बस्ती में
उन गलियों में अब तक दिल को वीराना महसूस हुआ
रफ़्ता रफ़्ता बंधते गये हम ख़ुद रेशम ज़ंजीरों में
तेरी ज़ुल्फ़ों का अब हमको बलखाना महसूस हुआ
हर चेहरा ही खींच रहा है अब तो अपनी सिम्त हमें
हर चेहरे में उनका ही इक नज़राना महसूस हुआ
कितनी मीना कितने साग़र कितने हमने जाम पिये
तेरी आँखों में हर दिन ही मैख़ाना महसूस हुआ
छलके पड़ते थे पैमाने बलखाता था साक़ी भी
महफ़िल में हर इक चेहरा ही रिन्दाना महसूस हुआ
हम ही तन्हा चढ़ते जाते प्यार की सूली पर शायद
देख के हमको उस ज़ालिम का मुस्काना महसूस हुआ
चाँद सितारे तोड़ के हम भी ला सकते थे यार मगर
उनके पहलू में तब हमको तहख़ाना महसूस हुआ
हम जो साग़र आ पहुँचे हैं इन शीशों की बस्ती में
हमको अपना दौर-ए-माज़ी दीवाना महसूस हुआ
बिल्कुल नई रदीफ़
लुटाने प्यार महीनों के बाद आता है
हमारा यार महीनों के बाद आता है
कमाले – जब्त पे मुझको भी नाज़ है ख़ुद पर
वो जांनिसार महीनों के बाद आता है
यक़ीन है वो निभायेगा अपने वादे को
ये ऐतबार महीनों के बाद आता है
उदास बैठे हैं साक़ी सुराही पैमाने
वो बादाख़्वार महीनों के बाद आता है
शराबे – इश्क़ पिला दो हुज़ूर जी भर के
हमें ख़ुमार महीनों के बाद आता है
तड़पते रहते हैं तन्हा ही दर्द में हम तो
वो ग़मगुसार महीनों के बाद आता है
करूँ गिला या शिकायत भी उस से क्या साग़र
ये इंतज़ार महीनों के बाद आता है
इज़्ज़त बनी रही
हर इक नज़र में मेरी भी इज़्ज़त बनी रही
कुछ इस तरह से उनकी इनायत बनी रही
कुछ और पास आने की चाहत बनी रही
उनसे यही तो एक शिकायत बनी रही
कुछ इस तरह से उसने बुलाया था बज़्म में
लोगों में मेरे दीद की हसरत बनी रही
जिस घर को तुमने प्यार से जन्नत बना दिया
उस घर में हर नफ़स ही मुहब्बत बनी रही
दिल के हज़ार टुकड़े हुए तो भी क्या हुआ
दिल पर तुम्हारी फिर भी हुकूमत बनी रही
जो तूने ज़िंदगी का पढ़ाया था फ़लसफ़ा
तेरी क़सम वो मेरी तो आदत बनी रही
क्या -क्या करूँ बयान मैं इस ज़िंदगी में अब
तेरी क़दम क़दम पे ज़रूरत बनी रही
ऐसे जुड़े हैं हमसे वफ़ाओं के सिलसिले
साग़र दयारे-इश्क़ में शोहरत बनी रही
इक इक करोड़ के
वो अश्क हर नज़र में थे इक-इक करोड़ के
दामन सजा रहा था कोई दिल निचोड़ के
शाम-ए-फ़िराक़ में ये बहुत काम दे रहा
तुम जामे-ग़म गये जो मिरे नाम छोड़ के
करता है बात वो तो बड़ी एहतियात से
लफ़्ज़ों को तोड़ के कभी लफ़्ज़ों को मोड़ के
इक दिन उफ़ुक़ पे होगा मिरे दिल का आफ़ताब
सीढी बना रहा हूँ हरिक दिल को जोड़ के
उसके ग़ुरूरे-हुस्न का आलम तो देखिये
क्या लुत्फ़ ले रहा है वो आईना तोड़ के
पीछे हैं इसके आज भी नफ़रत की आँधियाँ
क्यों रास्ता बनायें ये दीवार फोड़ के
साग़र शब-ए-विसाल का मंज़र था लाजवाब
माला बनाई उसने दुपट्टा मरोड़ के
शाम-ए-फ़िराक़ – जुदाई की शाम
उफ़ुक़ – क्षितिज
शब-ए-विसाल – मिलन की रात
मशहूर हो गए
कितने अजब ये आज के दस्तूर हो गये
कुछ बेहुनर से लोग भी मशहूर हो गये
जो फूल हमने सूँघ के फेंके ज़मीन पर
कुछ लोग उनको बीन के मग़रूर हो गये
हमने ख़ुशी से जाम उठाया नहीं मगर
उसने नज़र मिलाई तो मजबूर हो गये
उस हुस्ने-बेपनाह के आलम को देखकर
होश-ओ-ख़िरद से हम भी बहुत दूर हो गये
इल्ज़ाम उनपे आये न हमको ये सोचकर
नाकरदा से गुनाह भी मंज़ूर हो गये
रौशन थी जिनसे चाँद सितारों की अंजुमन
वो ज़ाविये नज़र के सभी चूर हो गये
साग़र किसी ने प्यार से देखा है इस कदर
शिकवे गिले जो दिल में थे काफूर हो गये
कोई ख़याल नहीं
ख़याले-यार से बढ़कर कोई ख़याल नहीं
शब-ए-फ़िराक़ है फिर भी ज़रा मलाल नहीं
किसी की सम्त उठा कर निगाह क्या देखें
तेरे जमाल के आगे कोई जमाल नहीं
जमाले -यार की रानाइयों में खोया हूँ
फ़ज़ा-ए-मस्त से मुझको अभी निकाल नहीं
उड़ेगी नींद तू खोयेगा चैन दिन का भी
दिमाग़ो-दिल में तसव्वुर किसी का पाल नहीं
बयान करने से पहले न अश्क़ बह निकलें
तू पूछ मुझसे परेशानियों का हाल नहीं
मैं तोड़ बैठूँ न ज़ंजीर अपने पैरों की
लहू को यार तू इतना मेरे उबाल नहीं
ये रख रखाव भी उसका है बाइस-ए-हैरत
ग़रूरे -हुस्न पे आया ज़रा ज़वाल नहीं
मैं बेख़ुदी में न ग़ुस्ताखियाँ कहीं कर दूँ
शराब और तू साग़र में मेरे डाल नहीं
शब-ए-फ़िराक़- विरह की रात
मलाल– दुख ,पश्चाताप
जमाल – अदितीय रूपवान
ज़वाल – पतन ,गिरावट ,कमी आना ,
बाइसे-हैरत -आश्चर्य का कारण
शराब की सी है
वो तो बोतल शराब की सी है
उसकी सोहबत अज़ाब की सी है
उसको अक्सर ही पढ़ता रहता हूँ
उसकी सूरत किताब की सी है
बस जुदाई है एक लम्हे की
यह घड़ी इज़्तिराब की सी है
नाज़ुकी उस बदन की क्या कहिए
हूबहू ही गुलाब की सी है
उनके आने से हर तरफ़ देखो
रौशनी माहताब की सी है
हर किसी के क़दम थिरकने लगे
धुन ये गोया रबाब की सी है
जीत कर आ रहा है वो साग़र
चाल यह कामयाब की सी है
इज़्तिराब – व्याकुलता, बेचैनी
रबाब – वाद्य यंत्र
ना ख़ुदा ही नहीं
पार अब तक सफ़ीना हुआ ही नहीं
कोई हम को मिला नाख़ुदा ही नहीं
दस्तकें लाख देता रहा मैं मगर
दिल का दरवाज़ा उसका खुला ही नहीं
साथ उसका भला कैसे मैं छोड़ दूँ
ऐब उस में मुझे कुछ दिखा ही नहीं
प्यार पाता मैं कैसे तेरा उम्र भर
ऐसा क़िस्मत में शायद लिखा ही नहीं
ऐब दूजों में सब ढूँढते हैं यहाँ
कोई अपनी कमी ढूंँढता ही नहीं
छोड़कर तुझको जाऊं कहाँ तू बता
तेरे जैसा कोई दूसरा ही नहीं
कोई वादा न उसने निभाया मगर
दिल ने माना उसे बेवफ़ा ही नहीं
रास्ते में मिलेंगे कई हमसफ़र
एक तू मेरा बस हमनवा ही नहीं
उसने कोशिश तो साग़र बहुत की मगर
फ़ासला दर्मियां का मिटा ही नहीं
कद्रदानों के थे
यह भी अहसान कुछ क़द्रदानों के थे
जो निशाने पे हम भी कमानों के थे
जो भी सीनों पे सब आसमानों के थे
वो सभी तीर अपनी कमानों के थे
ठोकरों ने भी बख़्शा हमें रास्ता
हौसले जब दिलों में चटानों के थे
.हैं निगाहों में अब भी वो रश्क-ए-चमन
जो भी जाँबाज़ ऊँची उड़नों के थे
जुगनुओं को भी डसने लगी तीरगी
हुक्म ऐसे यहाँ हुक्मरानों के थे
तितलियों को भी शर्मिंदा होना पड़ा
काग़ज़ी फूल सब फूलदानों के थे
ले गयी भूख बच्चों की किलकारियां
हम तो पुर्ज़े फ़कत कारखानों के थे
.उम्र भर हम तो साग़र चले धूप में
आसरे कब हमें सायबानों के थे
यह कहानी फिर सही
हमने कब किसको पुकारा यह कहानी फिर सही
किसको होगा यह गवारा यह कहानी फिर सही
आबरू जायेगी कितनों की तुम्हें मालूम क्या
किसने किसका हक़ है मारा यह कहानी फिर सही
रिश्तों को मीज़ान पर लाकर के जब रख ही दिया
क्या रहा मेरा तुम्हारा यह कहानी फिर सही
तेज़ था तूफान बरहम भी था हमसे नाख़ुदा
कैसे पाया था किनारा यह कहानी फिर सही
जिसने मेरा हाथ थामा ख़ुश रहे वो ऐ ख़ुदा
कौन है मेरा सहारा यह कहानी फिर सही
अपनी ग़लती का उसे अहसास शायद हो गया
लौट आया वो दुबारा यह कहानी फिर सही
उड़ रहे हैं होश मेरे इन को काबू में करूँ
जो भी देखा है नज़ारा यह कहानी फिर सही
पहले अपने दिल को बहला लूँ मैं साग़र हर तरह
इश्क़ में क्या क्या है वारा यह कहानी फिर सही
आबरू – सम्मान,लाज
नाख़ुदा – नाविक,
इशारा नहीं किया
नाकाम हमने उनका इशारा नहीं किया
दिल तोड़ना किसी का गवारा नहीं किया
दिल तोड़ कर किसी का पशेमां हैं आज तक
यह काम हमने दोस्त दुबारा नहीं किया
जब जब उन्हें हमारी ज़रूरत दिखाई दी
उस वक़्त हमने उनसे किनारा नहीं किया
जिस-जिस ने हमको अपना बनाया था राज़दाँ
उनके यक़ीं का हमने ख़सारा नहीं किया
हसरत भरी निगाहों की ज़द में हैं कब से हम
फिर भी किसी नज़र का उतारा नहीं किया
मंज़र था बेलिबास निगाहों के सामने
जी भर लगा कि फिर भी नज़ारा नहीं किया
साग़र बतायें कैसे तुम्हें राज़े-ज़िन्दगी
हमने कहाँ-कहाँ पे गुज़ारा नहीं किया
काम आना चाहिए
जज़्बा-ऐ इंसानियत सबको दिखाना चाहिए
कोई प्यासा हो उसे पानी पिलाना चाहिए
नेकियों की राह पर जो आदमी हो गामज़न
हौसला उस शख़्स का हमको बढ़ाना चाहिए
हर कहानी में यही मफ़हूम मैंने लिख दिया
आदमी को आदमी के काम आना चाहिए
इस ज़माने से नसीहत यह हमें भी मिल गई
दोस्ती करने से पहले आज़माना चाहिए
ज़िन्दगी ढोता रहा ख़ानाबदोशों की तरह
इस मुसाफ़िर को भी अब इक आशियाना चाहिए
अपने घर जैसी हिफ़ाज़त मुल्क की सब ही करें
बात यह दानिशवरों सबको बताना चाहिए
कर रहा गुमराह हर दिन हमको मीर-ए-कारवाँ
इससे बचने का हमें कोई बहाना चाहिए
कातिब-ए-तक़दीर से कहना है यह साग़र हमें
हमको भी मेहनत के बदले आबोदाना चाहिए
मफ़हूम-विषय
दानिशवरों-बुद्धिजीवियों
मीर-ए-कारवाँ-समूह या दल का नेता
कातिब-ए-तक़दीर-भाग्य लिखने वाला
जगाते हो किसलिए
गुज़रे दिनों की याद दिलाते हो किसलिए
ख़्वाबीदा हसरतों को जगाते हो किसलिए
आकर ख़याले-बाग़ में जाते हो किसलिए
अफ़सुर्दा ज़िन्दगी को बनाते हो किसलिए
बेबाक़ियों ने आपकी जब दिल ही ले लिया
फिर इतने नाज़ नखरे दिखाते हो किसलिए
बढ़कर उठा लो जामो- सुराही को हाथ में
दिन ज़िन्दगी के यूँ हीं गँवाते हो किसलिए
यह प्यार है नहीं तो बता दो तुम्ही है क्या
जब रूठता हूँ मैं तो मनाते हो किसलिए
इतना तो सोचिये कहीं डस लें न ज़ुल्मतें
रोशन चराग़ कर के बुझाते हो किसलिए
साग़र बक़द्रे ज़र्फ़ मिलेगी यहाँ तुम्हें
ख़ामोशियों में शोर मचाते हो किसलिए
अफ़सुर्दा – मायूस, उदास
ज़ुल्मतें – अंधेरे
बक़द्रे-ज़र्फ – सहनशक्ति या योग्यता अनुसार
सब्र मेरा न यूँ आज़माया करो
सब्र मेरा न यूँ आज़माया करो
रूबरू ऐसे सज कर न आया करो
इतनी बातें न हमसे बनाया करो
जामे – उल्फ़त ख़ुशी से पिलाया करो
साक़िया तुम को इस प्यासे दिल की क़सम
शाम ढलते ही महफ़िल सजाया करो
प्यार की मौजें दिल में पटकती हैं सर
इस समुंदर में आकर नहाया करो
कैसे जानें कि हमसे तुम्हें प्यार है
प्यार को बेझिझक तुम जताया करो
जिसके मिलने से होती है तुम को ख़ुशी
वो जो रूठे तो उसको मनाया करो
उसने साग़र बड़े नाज़ से कह दिया
देखते ही हमें मुस्कुराया करो
ख़ूब हंगामा हुआ
उसने जब मुझको पुकारा ख़ूब हंगामा हुआ
मैं बना उसका सहारा ख़ूब हंगामा हुआ
देखकर मायूसियां चेहरे पे तेरे,रात भर
मेरे दिल में मेरे यारा ख़ूब हंगामा हुआ
छीन ली पतवार मौजों ने मेरे हाथों से पर
जब मिला मुझको किनारा ख़ूब हंगामा हुआ
उसके जाने पर उदासी थी नज़र में हर तरफ़
आ गया जब वो दुबारा ख़ूब हंगामा हुआ
जब अमीर- ए- हुस्न ने दावत पे बुलवाया मुझे
मैंने देखा वो नज़ारा ख़ूब हंगामा हुआ
ख़ुश बहुत थे बीबी बच्चे और घर के लोग सब
चमका जब मेरा सितारा ख़ूब हंगामा हुआ
हमसे बर्बादी चमन की देखी जाती थी नहीं
देखा जब गुलचीं को हारा ख़ूब हंगामा हुआ
अहले – दुनिया ने सुना जब मुझको यह कहते हुए
जो है मेरा वो तुम्हारा ख़ूब हंगामा हुआ
दुश्मनों की सिम्त साग़र सैकड़ों अहबाब थे
था वही बस इक हमारा ख़ूब हंगामा हुआ
वहाँ आन-बान की
जब बात चल रही थी वहाँ आन-बान की
लोगों ने दी मिसाल मेरे खानदान की
मैं हूँ ज़मीन का वो परी आसमान की
कैसे मिटेगी दूरी भला दर्मियान की
देखूं मैं उसके नखरे या माँ बाप की तरफ़
सर पर खड़ी हुई है बला इम्तिहान की
कैसे यक़ीं दिलाऊं उसे अपनी बात का
धज्जी उड़ा दी उसने मेरे हर बयान की
बोते हैं वो बबूल तलब आम की करें
आफ़त में जान आ गई अब बाग़बान की
परवाह अपनी ख़ुद की करें भूलकर मुझे
मुझको कमी नहीं है यहांँ क़द्रदान की
साग़र मैं उठ के जाऊं तो जाऊं भी किस तरह
रोके हुए नज़र है मुझे मेज़बान की
रोना बहुत है
अभी आलाम का रोना बहुत है
तुम्हारा साथ में होना बहुत है
रहे क्या आरज़ू दुनिया की हमको
तुम्हारे दिल का इक कोना बहुत है
थकन तारी न हो पाये बदन पर
वफ़ाओं को अभी बोना बहुत
बरसती हैं यहाँ यादें किसी की
हमारे पास यह सोना बहुत है
तुम्हें चाँदी की हो थाली मुबारक
हमारे वास्ते दोना बहुत है
हमारे सर पे ज़िम्मेदारियां हैं
अभी इस बोझ को ढोना बहुत है
संभल के चलियेगा साग़र यहाँ पर
कि राह-ए-इश्क में खोना बहुत है
तुम्हारा इशारा हुआ
इतना दिलकश तुम्हारा इशारा हुआ
दिल हमारा था पल में तुम्हारा हुआ
दोनों टकरा के इक दूसरे पर गिरे
हादसा ऐसा क्यों यह तिबारा हुआ
दूसरा इसके जैसा कहाँ से मिले
रूप है यह ख़ुदा का सँवारा हुआ
जब से दीं हमने घर की उन्हें चाबियाँ
शान से फिर हमारा गुज़ारा हुआ
हमसफ़र जब से वो ज़िन्दगी में हुए
ख़ुशनुमा ख़ुशनुमा ही नज़ारा हुआ
दिल ने रुतबा ही ऐसा दिया है उन्हें
उनका सब कुछ ही हमको गवारा हुआ
मेहरबां वक़्त साग़र हुआ हम पे जब
वो भी हासिल हुआ जो था हारा हुआ
किसी को क्या देखा
हम बतायें किसी को क्या देखा
उनका आलम ही दूसरा देखा
मेरे आते ही उनके चेहरे को
फूल जैसा खिला हुआ देखा
वोही हँसते मिले हैं आँखों में
हमने जब जब भी आइना देखा
दो घड़ी ही नज़र मिली उनसे
चढ़ता रग-रग में इक नशा देखा
उनसे मिलने के वास्ते मैंने
अपने दिल में भी ज़लज़ला देखा
आज तक ही वो महवे-हैरत है
जिसने भी मेरा हौसला देखा
कैसे मंज़िल नशीं वो हो पाये
जिसने पैरों का आबला देखा
जब इशारा उधर से था साग़र
हमने फिर कुछ न फ़ासला देखा
होनी को तो होना है
बेजा जादू टोना है
होनी को तो होना है
प्यार के गुंचे खिल उठ्ठें
प्यार यूँ हमको बोना है
उनकी इनायत कब होगी
इसका ही बस रोना है
उनके प्यार की दौलत से
सस्ता चाँदी सोना है
उनकी तव्वजो से रंगीं
घर का कोना कोना है
दामन पर जो दाग़ लगे
सच्चे मन से धोना है
पिछली यादें बिसरा कर
चादर तान के सोना है
उनका इशारा हो साग़र
वो लम्हा नहीं खोना है
घर को संभाले
इस दिल को बता तू ही करूँ किसके हवाले
अब तेरे सिवा कौन मिरे घर को संभाले
इक बात ही कहते हैं यहाँ आके पड़ोसी
जब तुम थे बरसते थे यहाँ जैसे उजाले
मेरे ही तबस्सुम से तिरा रूप खिला है
तू अपनी निगाहों के कभी देख तो हाले
बख़्शी थी कभी टेक के सर ,तूने मसर्रत
काँधे से मिरे आज तू फिर सर को टिकाले
ताउम्र रुलायेगा तुझे मेरा बिछड़ना
बैठा हूँ तिरे दर पे मुझे अब भी मनाले
कहते हैं तुझे लोग मिरे ग़म का मसीहा
आजा कि मिरी जान मिरी जान बचाले
आऊंगा नज़र मैं ही तू देखेगा जिधर भी
तस्वीर मेरी लाख तू अब घर से हटा ले
अपने तो बहुत लोग हैं अब देखिये साग़र
इस दौरे-कशाकश से मुझे कौन निकाले
हुज़ूर आपका अंदाज़
हुज़ूर आपका अंदाज़ क्या निराला है
नज़र मिला के ही बस हमको मार डाला है
बदल रहे हैं जो मौक़े पे अपने चेहरे को
उन्हीं का आज ज़माने में बोलबाला है
ज़माना इसलिए पढ़ता है शौक से हमको
ग़ज़ल में रंग मुहब्बत का हमने ढाला है
लगे न चोट कभी माँ के दिल पे ऐ बेगम
बड़ी उमीद से माँ ने हमारी पाला है
रईस लोग तो लाये हैं फूल फल मेवा
हमारी बात यहाँ कौन सुनने वाला है
क़दम क़दम पे नुमाइश है शोख जिस्मों की
कि जैसे तैसे ही ईमान को सँभाला है
समझ में आ गयी साग़र रविश ज़माने की
हज़ारों बार पड़ा इससे अपना पाला है
आप उधर जाते हैं
अश्क़ आँखों में इसी बात से भर जाते हैं
हम इधर आते हैं तो आप उधर जाते हैं
उसके वादे पे लगे जैसे घड़ी रुक सी गयी
रास्ता तकते हुए हम तो बिखर जाते हैं
उनके वादे का कहाँ तक मैं भरोसा रख्खूँ
वो अदाओं से हमेशा ही मुकर जाते हैं
सिर्फ़ दीदार को बेताब है क्योंकर दुनिया
हम गुज़रते हैं तो सब लोग ठहर जाते हैं
जब भी कहता हूँ ग़ज़ल तेरी किसी तस्वीर पे मैं
बिगड़े अलफ़ाज़ यकायक ही संवर जाते हैं
राह में कितने अंधेरे हों या सन्नाटे हों
हम तेरे नाम से बेख़ौफ़ गुज़र जाते हैं
शहर है कैसा कोई प्यास बुझाता ही नहीं
सारे अरमान इसी प्यास से मर जाते हैं
तुझको बदनाम न कर दे ये ज़माना साग़र
उठ के कूचे से तेरे जाने-जिगर जाते हैं
हम सुब्हो- शाम की
क्या ख़ाक जुस्तजू करें हम सुब्हो-शाम की
जब फिर गईं हों नज़रें ही माह-ए-तमाम की
जो कुछ था वो तो लूट के इक शख़्स ले गया
जागीर रह गई है फ़कत एक नाम की
ख़ुद आके देख ले तू मुहब्बत के शहर में
शोहरत हरेक सम्त है किसके कलाम की
ज़ुल्फ़ें हटा के नूर अँधेरे को बख़्श दे
प्यासी है कबसे देख ये तक़दीर शाम की
खोली जो उस निगाह ने मिलकर किताबे-इश्क़
उभरीं हरेक हर्फ़ से मौजें पयाम की
मिल जायेंगे ज़रूर ज़मीं और आसमां
अब बात हो रही है सुराही से जाम की
साग़र धुआँ धुआँ है फ़ज़ाओं में हर तरफ़
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की
माह-ए-तमाम — पूर्णिमा का चंद्रमा
नूर— प्रकाश
इंतकाम –बदला
बेक़रा़र मैं भी था
फ़िराक़े-यार में कल बेक़रार मैं भी था
दयारे इश्क़ में इक दावेदार मैं भी था
नज़र के मिलते ही नज़रें वो फेर लेते थे
किसी को इतना कभी नागवार में भी था
ये बात और तू अब देखता नहीं मुड़कर
तेरी निगाह का हासिल क़रार मैं भी था
निशानी प्यार की हर इक गवाही देती है
तेरे अज़ीज़ों में कल तक शुमार मैं भी था
वो दिन भी याद तो होंगे तुम्हें ए-जानेजहां
तुम्हारे दुख में कभी ग़मगुसार मैं भी था
ज़फ़ाएं तेरी सही जाती अब नहीं मुझसे
वफ़ा का तेरी कभी पैरोकार मैं भी था
बदल गया हूँ तेरे रंग देखकर साग़र
तेरे ख़ुमार में कभी जांनिसार मैं भी था

कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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