याद न आये, बीते दिनों की
याद न आये, बीते दिनों की
बैठी हूँ नील अम्बर के तले
अपनी स्मृतियों की चादर को ओढे
जैसे हरी-भरी वादियों के नीचे
एक मनमोहक घटा छा जाती है
मन में एक लहर-सी उठ जाती है।
जैसे कोई नर्म घास के बिछौनों पर
कोई मन्द पवन गुजर जाती है
देखकर प्रकृति नटी के इस रूप में
बचपन में की गई शरारतें
फिर से आंखों में उभर जाती है।
खिल उठती हूँ अपने ही चेहरे पर
आई मुस्कान को देखकर
और अपनी ही स्मृतियों में खो जाती हूँ
लहलहाते हुये खेतों की
पगडंडियों पर चलती हुई
कहीं दूर फिर स्मृतियों में चली जाती हूँ
सच कहा है-शायद किसी ने
उड़ जाते है पंछी
खाली घरौंदे रह जाते है।
आज ये सिर्फ यादें बन
मेरी बाल्यावस्था की
और उससे जुड़ी कुछ
भूली-बिसरी बातों की
न जाने कहाँ चली गई वो रातें
न जाने कहाँ चले गये वो दिन
बारिश में कागज की कश्ती को
पानी पर तैराना
वो स्कूल की बेंच पर
पेंसिल से नाम लिखना…
कभी कहीं खोये से
अपने मे ही गुम हो जाना….
कैसे चले गये वो दिन
जो अब वापस नही आयेंगे
क्या मैं उन दिनों को याद ही कर पाऊँगी ?
मैं उन्हें कभी भूल नही पाऊँगी।।
डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल ( मप्र )
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