“जैदि” की ग़ज़ले | Zaidi ki Ghazlein
मुझको इतना भी न सता ऐ जिंदगी
मुझ को इतना भी न सता ऐ जिंदगी,
क्या ख़ता है मेरी मुझे बता ऐ जिंदगी।
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क्या बिगाड़ा हम ने तेरा, बता दे ज़रा,
तलब है मिलने की दे पता ऐ जिंदगी।
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गुज़र रहे शबो रोज़,दौर ए मुसीबत में,
दी है खुशियाँ गर तो जता ऐ जिंदगी।
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ग़म ए अश्क तुमने पीए है कभी बता,
हुई तो तुझ से भी है ख़ता ऐ जिंदगी।
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रुला के हंसाती कभी हंसा के रुलाती,
ज़रा बता तेरा है क्या मता ऐ जिंदगी।
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ठहर के पूछ “जैदि” से तुझसे कितना,
है परेशाँ, हर ज़ईफ़ो-फ़ता ऐ जिंदगी।
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मायने:-
सता:-कष्ट
शबो-रोज़:-दिन और रात
ग़म ए अश्क:-ग़म के आंसू
ख़ता:-भूल
मता :-विचार
ज़ईफ़ो-फ़ता:-बूढा और जवान आदमी
तुझ को न पाया होता
( Tujhko na paya hota )
बेकार थी हयात हमारी तुझ को न पाया होता,
गर तुम न मिलती मुझको तो वक्त जाया होता।
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बेख़बर सा था अनजान सी गलियों से तुम्हारी,
फंसता जाल में न तुम्हारे, गर न सताया होता।
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पगली रातों को तुमने,खुद को यूँ क्यों जगाया,
मुहब्बत थी अगर मुझसे तो जरा बताया होता।
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ख़्यालों में सताना तेरा मुझ को अच्छा न लगा,
दर्द ए दिल गर था अपना समझ सुनाया होता।
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इक पल मुस्कुरा के मुझको देखा होता जानम,
पल पल साथ तुम्हारे मेरी रुंह का साया होता।
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उल्फ़त का ये सफ़र मुश्किल से “जैदि”कटा है,
आसान सफ़र कटता, अगर दिल लगाया होता।
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हो जाता हूँ
आजकल मैं, बिन तुम्हारे अख़बार हो जाता हूँ,
पूछता है कोई बारे में तेरे ख़बरदार हो जाता हूँ।
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रुसवा जब भी करे हम को महफिल से अपनी,
सिर झुका कर शर्मशार सा हरबार हो जाता हूँ।
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लाख वो हम को धिक्कारे है जिंदगी में अपनी,
बेखुदी है कि मेरी मैं फिर मददगार हो जाता हूँ।
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बदलते है लिबास मगर मन की न बदबू जाती,
देखता हूँ ऐसे लोगों को मैं खूंखार हो जाता हूँ।
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है ख़बर गुलशन में गुल तो है मगर महक नही,
गुजरता जानिब से, जब मैं बेज़ार हो जाता हूँ।
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हसरते बहुत है दिल में थोड़ी सी गुप्तगू कर ले,
ये जुबां तल्ख है “जैदि” जरा बेदार हो जाता हूँ।
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कबीर
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कबीरा तेरी लेखनी,चले ऐसे जैसे तलवार,
पाखंडी भी कहता मेरे पाखंड को भी मार।
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जाके हिय सदियों बसे नफरत भरे विकार,
चतुर,चलाक, अभिमानी माने कभी न हार।
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जात पात के जाल में, डाले संग-ओ-ख़ार,
धर्म कर्म की डाल बेड़ियाँ, करे हरदम वार।
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कबीरा तेरी ऐसी जननी खूब लुटायो प्यार,
जो तुझको जाने तुझे वही बनाऐ हथियार।
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अजीब निराली रीत पुरानी है देखी बारंबार,
कोई न माने वाणी तेरी वे फेरे माला हजार।
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क्या कहूँ कबीरा, है तेरी महीमा अपरम्पार,
इक बार फिर धरा पे आ “जैदि” करे पुकार।
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याद कैसे करे
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हादसे,चेहरे के मिटा निशान देते है
याद कैसे करे मिटा पहचान देते है।
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अजनबी लोग आते है, हाल पूछने,
वो नही आते जो कहते जान देते है।
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मौत पर मेरी शोर मचाने आऐगें वो,
ज़िस्त में जो खड़ा कर तुफान देते है।
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अब भरोसा ये किस पे करे बताओ,
लोग कैसे, अपना डुबो इमान देते है।
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पास में तुम रखा करो पता, अपना,
खोज लेगें जरुर हमे जो ध्यान देते है।
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“जैदि” देखो जरा यहाँ है कौन कैसे,
लोग जाते है बदल,जो जुबान देते है।
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दुःशासन
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लो लुटने लगी है आबरू,
नये धृतराष्ट्र के शासन में।
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लगी है आग चारो ओर,
प्रजा त्रस्त है कुशासन में।
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नारी निर्वस्त्र किऐ जा रही है,
हाकिम बैठा, मौन मुद्रासन में।
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बदल गयी है देखो राजसभा,
बदले सब किरदार प्रशासन में।
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जालिम जिस्म नौच रहे है देखो,
कोई ख़ौफ नही है दुःशासन में।
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तुम कहाँ हो कृष्ण,आ कर देखो?,
लज्जित नारी बैठी मरणासन्न में।
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आज नही तो कल
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झूठे और मक्कारों को तो बेनकाब होना था,
आज नही तो कल उदय आफ़ताब होना था।
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अंधेरा कब तलक सच दबा के रखता दोस्त,
बर्फ कब तक जमीं रहे, उसे तो आब होना था
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सच परेशाँ हो सकता है मगर, मर नही सकता
रक़ीब के हर सवाल का, उसे जवाब होना था
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दुश्मन की चालो का अंदाज़ नही था उस को,
मगर हाँ, सच का समय थोड़ा खराब होना था
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घेर लिया था चारों ओर बच कर कहीं न जाऐ,
आखिर सच की झोली में ये ख़िताब होना था
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कोई न काबिल था इस जंग-ए-मैदां में “जैदि”,
कैसे हार जाता वो, उसे तो लाजवाब होना था
हम हमारा क्या
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मर्जी से अपनी हम कहाँ सफर करते है,
रखते तो है पाँव जमीं पर, मगर डरते है।
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रहमोकरम पर चलते है हम हमारा क्या,
रख दे हाथ सिर पर कोई तब निखरते है।
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हताश हमारी हयात, किस पर जोर चले,
अछूत हो जाती चीज, जहाँ हाथ धरते है।
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उठा कर सिर चल पड़े तो शामत हमारी,
न जाने क्या दोष क्यूँ नज़र में अखरते है।
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अमानुष बना के छोड़ा जमाने ने हम को,
कि शब-ओ-रोज घुट-घुट के हम मरते है।
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सिसकती है जिंदगी, इतना जुल्म न करो,
मज़लूम “जैदि” देख तुमको आहें भरते है।
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मायने:-
हताश:-निराश
हयात:-जिंदगी
शामत:-विपत्ति
शबे-रोज:-रात और दिन
मज़लूम:-अत्याचार से पीड़ित
हताश हमारी हयात
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मर्जी से अपनी हम कहाँ सफर करते है,
रखते तो है पाँव जमीं पर, मगर डरते है।
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रहमोकरम पर चलते है हम हमारा क्या,
रख दे हाथ सिर पर कोई तब निखरते है।
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हताश हमारी हयात, किस पर जोर चले,
अछूत हो जाती चीज, जहाँ हाथ धरते है।
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उठा कर सिर चल पड़े तो शामत हमारी,
न जाने क्या दोष क्यूँ नज़र में अखरते है।
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अमानुष बना के छोड़ा जमाने ने हम को,
कि शब-ओ-रोज घुट-घुट के हम मरते है।
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सिसकती है जिंदगी, इतना जुल्म न करो,
मज़लूम “जैदि” देख तुमको आहें भरते है।
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मायने:-
हताश:-निराश
हयात:-जिंदगी
शामत:-विपत्ति
शबे-रोज:-रात और दिन
मज़लूम:-अत्याचार से पीड़ित
राजन
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इतना भी किस लिऐ तुम्हारा ये ग़रुर राजन,
तख़्त-ओ-ताज से गिराऐगा ये ज़रुर राजन।
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मज़लूमो को अब ओर न सता बस भी कर,
दिल की बस्तियों से इतना न जा दूर राजन।
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लहूलुहान है सड़कें देख गरीब के छालो से,
क्या लाशे कुचलना ही है, तेरा सरुर राजन।
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चमक चेहरे की चीख-चीख के कहे तुम्हारी,
मुफ़लिसी को रोंद के पाया है ये नूर राजन।
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तेरी चौखट पर सिर सब का,बस झुका रहे,
ये मशां जो फ़कत तुम्हारी है मग़रूर राजन।
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सुन इतना भी जुल्म न कर तूं “जैदि” पे कि,
ख़त्म हो जाऐ ये तुम्हारी छवि पुरनूर राजन।
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर।
मायने:-
इता: इतना
सरुर: नशां
मुफ़लिसी : गरीबी
मग़रूर: अभिमानी
पुरनूर: चमकदार
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