धरा | Dhara kavita
“धरा”
( Dhara )
“धरा”नहीं, तो क्या”धरा” ||
धरती-भूमि-धरा-प्रथ्वी-हम सब का अभिमान है |
बसते हैं नर-जीव-जन्तु जो, उन सब पर बरदान है |
प्रथम गोद माँ की होती है, दूसरी धरती माता की |
प्रथम खुरांक माँ के आँचल से, दूजी धरती माँ की |
“धरा”नहीं, तो क्या”धरा” ||
इसी धरा पर वीरों का, जन्म हुआ पहचान बनी |
इसी धरा पर वेद-ग्रंथ, रामायण-कुरान-पुराण बनी |
इसी धरा पर भिन्न रुप मे, संग-संग ईश्वर रहता है |
इसी धरा पर जीवन सुन्दर, मेरा मन ये कहता है |
“धरा”नहीं, तो क्या”धरा” ||
जीव और धरती का रिस्ता, जैसे दिया और बाती |
हो कर जुदा न दिया काम का, न मतलब की बाती |
जन्म से लेकर सारा जीवन, धरती पर ही गुजरे |
मर कर इसी धरा मे मिलते, अगला जीवन सुधरे |
“धरा”नहीं,तो क्या”धरा” ||
धरती और गगन का रिस्ता, रिस्तों की मिशाल हैं |
जम कर खडे इसी धरा पर, पर्वत बड़े विशाल हैं |
इसी धरा की गोद में बहतीं, नादियां छम-छम करती हैं |
नमन हमारा धरती माँ को, जो भार हमारा सहतीं हैं |
“धरा”नहीं, तो क्या”धरा” ||
कवि : सुदीश भारतवासी