Poem prem

प्रेम | Poem prem

प्रेम

( Prem )

 

लिख देता हूँ नाम तेरा पर, बाद मे उसे मिटाता हूँ।
और फिर तेरे उसी नाम पर,फिर से कलम चलाता हूँ।

 

एक बार हो तो समझे कोई, बार बार दोहराता हूँ।
कैसी है यह प्रीत मेरी जो, बिना समझ कर जाता हूँ।

 

बैठ अकेले में पागल सा, मैं बिना बात मुस्काता हूँ।
खुद ही रोता खुद ही हँसता,और खुद ही समझाता हूँ।

 

क्या राधा सी प्रीत मेरी, मीरा की भक्ति दिखाता है।
या बरबस नयनों के आंसू, श्याम रंग रग जाता हैं।

 

प्रीत अगर मानव से हो तो, दर्द विरह बन जाता हैं।
पर वो यदि भगवान से हो तो,भक्ति सम्पूर्ण कहलाता है।

 

क्यों  मानव में उलझा हैं मन, हूंक छोड़ हुंकार बता।
ईश्वर ही सम्पूर्ण हैं जग में, काम छोड़ ईश्वर में समा।

 

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✍?

कवि :  शेर सिंह हुंकार

देवरिया ( उत्तर प्रदेश )

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