परंपरा | Kavita Parampara
परंपरा
( Parampara )
यह कैसी परंपरा आई, दुश्मन हो रहे भाई-भाई।
घर-घर खड़ी दीवारें घनी, मर्यादा गिर चुकी खाई।
परंपराएं वो होती, संस्कारों की जलती ज्योति थी।
अतिथि का आदर, खिलखिलाती जिंदगी होती थी।
होली दिवाली पर्व पावन, सद्भावो की धाराएं भावन।
गणगौर तीज त्योहार, खुशियों का बरसता सावन।
परंपराएं जीवंत रखती है, मान मर्यादा संस्कारों को।
पुरखों की आन बान शान, रीति रिवाज परिवारों को।
बड़ों के चरण छू लेना, गुरुजनों का आदर करना।
बुजुर्गों की सेवा भरपूर, आशीशों से झोली भरना।
पावन परंपराएं निभा लेना, सुख समृद्धि घर आती।
यश वैभव कीर्ति पताका, सारी दुनिया में लहराती।
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )
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