गुडियाँ तुम्हारी

गुडियाँ तुम्हारी | पितृ दिवस पर आधारित डॉ. ऋतु शर्मा की कविता

गुडियाँ तुम्हारी

बाबा मैं पली भले ही माँ की कोख में
पर बढ़ी हर पल आपकी सोच में
आप ही मेरा पहला प्यार
आप ही मेरे पहले सुपर हीरो
आपकी ही अंगुली पकड़ कर
पहला कदम इस धरा पर रखा
आपके ही भरोसे खुद पर भरोसा रखा

थकी जो कभी चलते चलते
आपने ही अपने कंधों पर मुझे बिठाया
गिरी जब लड़खड़ा कर पत्थरीली राहों मे
मेरे ज़ख़्मों पर आपने ही हमेशा
अपनी मुस्कुराहट का मरहम लगाया

बाँहों के झूले में हमेशा झुलाया
नित नई लोरी गा के मुझे सुलाया
हुआ जो कभी साहस कम मेरा
अपने शब्दों से आपने मेरा हौसला बढ़ाया
जब जब ज़रूरत पड़ी एक दोस्त की
अपना हाथ आपने हमेशा आगे बढ़ाया

अब भूल रहे हो अब आप
आप धीरे धीरे अपना अस्तित्व
वो घर , वो आंगन, वो कमरा
जो है अभी भी तुम्हारा
जहाँ रहता है हँसता खेलता
परिवार हमारा

भूलने लगे हो अब आप पल पल की बातें
मेरे साथ बिताएँ दिन और रातें
पैर अब लड़खड़ाने लगे है
रास्ता घर का भूल जाने लगे हैं
शब्द भी अब तुम्हारे तुम्हें छोड़ जाने लगे हैं

पर याद मुझे है सब गीत तुम्हारे
अब गाऊँगी साथ तुम्हारे
पकड़ उँगली तुम्हारी घर ले
आऊँगी दोबारा
अब तुम बच्चे बन गए ,
और मैं पापा तुम्हारा
रखूँगी हर पल ध्यान तुम्हारा
धुँधली यादों को बना ताज़ा
अपने पापा को वापिस लाऊँगी
क्योंकि नहीं चाहती मैं
तुम कभी यह भूलों की
तुम पेरे पापा हो और मैं हूँ..
गुडियाँ तुम्हारी ,,, गुडियाँ तुम्हारी

डॉ. ऋतु शर्मा ननंन पाँडे
( नीदरलैंड )

*कवियित्री व समाजसेवी

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