फिर उसी कांधे पर सिर | Kavita Phir usi Kandhe par
फिर उसी कांधे पर सिर
( Phir usi kandhe par seer )
बचपन में मां के आंचल में सिर देकर सो जाते थे।
मीठी मीठी लोरियां सुनकर सपनों में खो जाते थे।
बैठ पिता के कंधों पर हाथी घोड़े का चलता खेल।
कागज की नाव चलाते साथियों संग चलती रेल।
फिर पिता के कंधों पे सिर रखने को जी करता।
दो घड़ी चैन की सांस आंचल में सोने को करता।
थक गया हूं भागदौड़ के दिखावे के आडंबर से।
रास नहीं आता मुझको तूफान बरसते अंबर से।
चल रही स्वार्थ की आंधी टूट रही रिश्तो की डोर।
अपनापन अनमोल कहां गई कहां सुहानी भोर।
फिर उन्हीं कंधे पे सिर रख खुलकर जब मैं रोया।
आंसुओं की धार निकली जाने क्या-क्या खोया।
बन गये अतीत के पन्ने मैं अक्षर पढ़ नहीं पाया।
नैनो के झरोखों में आज यादों का सैलाब आया।
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )