राज़ | Kavita Raaj
राज़
( Raaj )
दिवाली की रात आने वाली है,
पर दिवाली ही क्यों?
रोजमर्रा की जरूरत
गरीबी ,लाचारी,
सुरसा के मुंह की तरह
मुंह खोल खड़ी है।
जाने क्या गज़ब ढाने गई है वो?
लौट के जब आएगी,
चंद तोहफ़े लायेगी।
भूख ,प्यास से,
बिलख रही है
उससे जुड़ी जि़दगीयां
अचानक अचंभा हुआ——
कुछ पल में बजने लगी,
खुशियों की वहां शहनाइयां।
कुछ पाने के लिए
क्या खोकर आई है वो,
रोटी ,कपड़ा, पटाखे कपड़े मिठाइयां और खुशियों
के खिलौनों की खा़तिर।
अपने जिस्म के भीतर,
कोख के तहख़ाने में,
जिस पर कभी भी
मजबूती वाला
ताला लगाया ही नहीं
जा सकता है।
उस ख़ज़ाने के भीतर
मजबूरी के वीर्य
भरकर आई है, वो।
इस बात से अन्जान
है सब
और——- और
ख़ुशी ख़ुशी खो गये
चंद पलों के
उधार मिले खु़शियों
के मेले में
भूल के सारे झमेले।
झूम उठे, नाच उठे,
और वो हां ——- वो
दिवाली की काली
अमावस्या की रात सी
ख़ुद से लिपट कालिमां
की चादर से लिपट
सिसक कर रह गई।
डॉ. प्रियंका सोनी “प्रीत”
जलगांव
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