संसय | Kavita
संसय
( Sansay )
मन को बाँध दो दाता मेरे,मेरा मन चंचल हो जाता है।
ज्ञान ध्यान से भटक रहा मन,मोह जाल मे फंस जाता है।
साध्य असाध्य हो रहा ऐसे, मुझे प्रेम विवश कर देता है।
बचना चाहूं मैं माया से पर, वो मुझे खींच के ले जाता है।
वश में करू इन्द्रियाँ कैसे, मन भ्रम में डूबता जाता है।
काम साधना ईश्वर का है, मन रीति रति दोहराता है।
भस्म चिता की देखी थी जब, मन वैराग्य हुआ मेरा।
पर मै बुद्ध नही बन पाया, मन निर्बल बनता जाता है।
द्वंद्व द्वार पर भटक रहा मुझे, तर्पण दो या मोक्ष प्रभु।
अन्धकार अज्ञान भरा मुझे,ज्ञान सुधा रस अभिमन्यु।
अन्तर्मन के खोल चक्षु ये, मुझसे क्यों ना खुलता है।
शेर हुआ हुंकार पराजित,सकल साधना विफल प्रभु।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )