आईना
आईना
आईना बनकर
लोगों के अक्स हूं दिखाता
बहुत साधारण और हूं सादा
न दिखाता कभी कम न ज्यादा
जो है दिखता
हू-ब-हू वही हूं दिखाता।
लेकिन न जाने क्यों?
किसी को न सुहाता?
जाने ऐसा क्या सबको है हो जाता?
तोड़ लेते हैं झट मुझसे नाता!
होकर तन्हा कभी हूं सोचता
कभी पछताता
मैं सच्चाई ही क्यों हूं दिखाता?
इसीलिए तो किसी को नहीं हूं भाता
आंखों को हूं चुभता और खटकता
कांच समझ सब दिल तोड़ जाते हैं
सच से मुंह सब मोड़ जाते हैं
सिर्फ बड़ाई और हां में हां चाहते हैं
जो मुझसे नहीं होता।
ना कभी होगा
देखा जाएगा,
जो भी आगे होगा!
आईना का अक्स न कभी बदला है
ना बदलेगा
जो है वही रहेगा
वही दिखेगा
ग़लत बयानी वही करेगा
जो बिका रहेगा!
जो ज्यादा दिन नहीं टिकेगा
अनंत काल तक सिर्फ सच ही दिखेगा।
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।