Purush
Purush

हाॅं मैं एक पुरूष हूॅं

( Han main ek purush hoon ) 

 

हाॅं मैं एक पुरूष हूॅं,
मेरे परिवार की ज़रूरत हूॅं।
मैं क्रूर एवं उग्र नही शान्त रहता हूॅं,
अपनें परिवार के बारे में सोचता रहता हूॅं।।

रिश्तों को समझता हूॅं,
दर-दर भटकता रहता हूॅं।
तीन बातों का ख़ास ध्यान रखता हूॅं,
रूठना मनाना और मान जाया करता हूॅं।।

तपती रेत पर चलता हूॅं,
इज्ज़तदार बनकर जीता हूॅं।
सूरज चाॅंद तक पहुॅंचना चाहता हूॅं,
परिवार की ख़ुशी में ही मैं ख़ुश रहता हूॅं।।

मैं नारी का अभिमान हूॅं,
उसकी ख़ुशी का खज़ाना हूॅं।
मैं पुरूष अनेंक बोझ तलें दबा हूॅं,
अपनों की ख्वाहिशें पूरी करता रहता हूॅं।‌।

हाॅं मैं ही ऐसा पुरूष हूॅं,
जो सदैव चलता ही रहता हूॅं।
चट्टान तोड़कर राह बना ही लेता हूॅं,
बेख़ौफ़ सीमाओ पर पहरेदारी करता हूॅं।‌।

 

रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )

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