आम आदमी की किस्मत | Aam aadmi par kavita
आम आदमी की किस्मत !
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( Aam Aadmi Ki Kismat )
आम आदमी पिस रहा है,
सड़कों पर जूते घिस रहा है।
मारा मारा फिरता है इधर से उधर,
समझ नहीं पाए-
जाएं तो जाएं किधर ।
चहुंओर सन्नाटा है,
सहायता को कहीं जाता है?
निराशा ही निराशा उसे हाथ आता है।
सरकारी दफ्तर जाए,
कर्मचारी उसे दौड़ाएं,महीनों-साल,
फिर भी धीमी रहती है,
फाइलों की चाल।
काम होने के पहले ही
खुद उसका हो जाता है काम तमाम,
अब किस किस पर लगाएं हम इल्जाम?
थानों का वही हाल है,
जहां पीड़ित ही बेहाल है।
अपराधी मालामाल है,
जो रखता प्रभारी का ख्याल है।
पीड़ित थाने की सीढ़ियां चढ़ने से भी डरते हैं,
वहीं अपराधी ठाठ से उठते बैठते हैं।
आम आदमी की सुनता नहीं कोई,
धरती का बोझ समझ खुद का जीवन ढ़ोई।
ऐसा ही कुछ हाल है न्यायालयों का
बरसों बरस केस उलझे रहते हैं,
फैसले नहीं आ पाते हैं।
मिलते हैं सिर्फ डेट पर डेट,
न्याय चढ़ जाती हैं देरी की भेंट।
अपराधी बेल पर घूमते हैं,
राह चलते युवतियों को छेड़ते हैं,
कहते हैं फब्तियां,
लोक लाज से बाहर न आ पातीं सिसकियां।
गांव में भी दुत्कारा जाता है,
आम आदमी अपनों से ही हार जाता है।
बिक जाते हैं घर बार,
तब पलायन को होते तैयार।
अपना सबकुछ लुटाकर परदेश जाते हैं,
मेहनत मजदूरी कर ,
किराए की झोपड़ी में रहकर परिवार चलाते हैं।
सही मायने में आम आदमी के कष्ट
कभी खत्म नहीं हो पाते हैं!
आम आदमी की किस्मत ऐसी क्यों है,
सदियों से ज्यों कि त्यों है।
यह प्रश्न चिंतनीय है,
सभ्य समाज का कृत्य निंदनीय है।
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