अच्छे दिन वाले शहर की हकीकत | Kavita
अच्छे दिन वाले शहर की हकीकत
( Achhe din wale shahar ki haqeeqat )
एक गरीब बेचारा
रहता था फकीरी में
बेबस लाचार
सहकर दुनिया भर के अत्याचार
एक दिन सोचा
अब यहां रहना है बेकार।
चलो चलें कहीं और ?
जहां सुकुन से मिले दो वक्त कौर।
कहां जाएं?
इस पर उसने काफी दिमाग खपाए,
फिर कुछ सोचकर –
‘अच्छे दिन वाले शहर’ की ओर कदम बढ़ाए।
पूरी रात आधा दिन चलकर,
पहुंचा अच्छे दिन वाला शहर।
पहुंचते ही स्वागत तीव्र प्रश्नों से हुआ?
आपका नाम क्या हुआ?
जाति मजहब धर्म भी बतलाओ?
किस उद्देश्य से आए हो?
यह भी बतलाओ।
करते क्या हो ?
आत्मनिर्भर हो कि नहीं?
यहां मुफ्त में कुछ मिलता नहीं!
प्रसाद भी 151 के टोकन पर मिलता है,
बिना पैसे कोई फाइल टेबल से नहीं हिलता है।
बड़ा असहज महसूस हुआ उसे
किसी तरह आगे बढ़ा
थोड़ी ही दूरी पर ,
जगह जगह बिखरा था सामान
टूटी फूटी दुकानें सब, जला था मकान।
पूछा तो पता चला
दंगा हुआ था !
एक कौम ने दूजे पर हमला किया था ।
मन मनोसकर आगे बढ़ा-
देखा भीड़ एक व्यक्ति को पीट रही है,
पुलिस खड़े वहां फोटो खींच रही है।
पूछा क्या है भाई?
क्यों कर रहे हो पिटाई?
बोला ! बोल वंदेमातरम
वरना तू भी पिटेगा,
वंदेमातरम नहीं कहने वालों का
यही हश्र होगा।
वंदेमातरम कहते आगे बढ़ा,
टन टन की आवाज सुन रूक गया।
देखा भीड़ ताली और थाली बजा रही है,
कुछ इस तरह कोरोना भगा रही है !
शाम हुई, भूख लग गई थी
सोचा कुछ खाकर पानी पी लूं
गया नल पर पानी लेने,
वहां खड़े लोग बोले- दुष्ट कमीने !
तू तो दलित लग रहा है
दूर हट जा, नल को ना छू
अपवित्र हो जाएगा,
फिर गंगाजल से शुद्ध करना पड़ेगा;
खबरदार जो आगे से कदम भी यहां धरेगा!
दूर हट जा!
तेरी छाया भी नहीं पड़नी चाहिए,
यह बात तुझे सदैव याद रहनी चाहिए।
बेचारा ! हाथ में खाली ग्लास लिए लौटा,
रास्ते भर यही सोचा।
क्या यही है अच्छे दिन वाला शहर?
यहां तो कण कण में भरा है जहर !
अच्छा है तू लौट चल,
वरना देख न पाएगा तू कल।
जो वहां है, वही ठीक है
अच्छे दिन के शहर में तो..
कुछ भी ठीक नहीं है?
दंगे, फसाद , लिंचिंग, भ्रष्टाचार, भेदभाव
कहीं दिखा नहीं मुझे सद्भाव।
सबके चेहरे पर तनाव ही तनाव,
दे रहे सब एक दूजे को घाव;
कहीं नहीं है संतोष की छांव।
यहां रहना कठिन है,
इससे अच्छा वहीं अपना पुराना दिन है।
बुदबुदाते लड़खड़ाते अपनी कुटिया में पहुंचा,
जल लेकर सुकून से पीया।
बोला हे भगवान!
इंसान को सद्बुद्धि दे,
बनते जा रहे हैं हैवान।
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।