बरसात | Barsaat
बरसात
( Barsaat )
( 2 )
सुना शहर तेरे में , जम के कुछ यूं बरसात न हुई
मेरे आने से, तेरे दिल की ज़मीं क्यों सहरा ना हुई
जलन कुछ इस तरह की ले आया था सीने में मैं
पत्थर मोम से पिघले मगर क्यों चश्म ए नम ना हुई
अब के सावन बरसा कि यूं बरसा कि हर तरफ पानी हुआ
रेत भरी थी जो दिल में तेरे, बस वही क्यों गीली ना हुई
बदली थी नीयत जो तेरी कि जलजला और सैलाब आए
चार रोज से बरस रहा, मेरे कच्चे मकां पर क्यों बरसात न हुई
कुछ तो अलग है हवा इधर की , तेरे उस शहर से
दम जो घुटता था वहां , वैसी उमस क्यों फिर यहां ना हुई.
( 1 )
तेरा यूं गर्जना,
फिर बरसना
क्या इतना ही था
तेरा तड़पना
इक पल में तेरा आना,
अगले लम्हे चले जाना
अपनी तू सुना गया
क्या उसकी भी सुनता गया
हिज्र में जो जलती रही
वस्ल को तरसती रही
अब्र से इतने कतरे गिरे न होंगे
जितने उसके अश्क बहे होंगे
कुछ देर तलक तो बरस जाता
लगी दिल की बुझा जाता
आफताब नहीं रकीब तेरा
दीवार बन आशिकी
आशिकी अपनी दिखा जाता
तपिश से कुर्रा-ए-अर्ज़ (ज़मीं) बचा लेता..
लेखिका :- Suneet Sood Grover
अमृतसर ( पंजाब )