जुमेरात को | Jumerat ko
जुमेरात को
( Jumerat ko )
आज धरा ,यह ज़मीं
कुछ नाराज सी लगी
आसमां से
आफाक में न कभी मिले हो
ना कभी ढंग से मुझे ढके हो
उल्टा पनाह दिए हो आफताब को
जो खुद भी आग है ,शोला है
और
मुझे भी जलाता है
झुलसाता है ,नाजुक सी मेरी जान को
रात को कहा था आने को
आकर मिल जाने को
बेरहम हो इतने कि
सहारा लिया अब्र का
चार छींटों से, मानो घी के
भड़का दिया शरारा बदन
मानों अदावत जन्म जन्मांतर की
मै दरवाजे की ओट से
देख रही थी , सुन रही थी दोनो के
वसल ओ हिज की गुफ्तगू
जुम्मरात को….
लेखिका :- Suneet Sood Grover
अमृतसर ( पंजाब )