बस्ती का अंतर्राष्ट्रीय साहित्यकार | Vyang
बस्ती का अंतर्राष्ट्रीय साहित्यकार
( Basti ka antarrashtriya sahityakar )
पत्नी वीरता पूर्वक साहित्य का सामना करती है। इस वाक्य के कई अर्थ हो सकते है। हो क्या सकते है होते है। एक तो यह कि साहित्य पत्नी का सामना नहीं कर सकता।
दूसरा यह कि दोनो आमने सामने खडे होकर एक दूसरे को घूरते है। तीसरा यह कि साहित्य पत्नी को पीठ दिखा सकता है पर पत्नी साहित्य को पीठ नहीं दिखा सकती।
चैथा यह कि पत्नी साहित्य से नहीं डरती पर साहित्य पत्नी से डरता है । पांचवां यह कि पत्नी वीरांगना है साहित्य नहीं। छठवा यह है कि पति के सामने पत्नी और साहित्य एक साथ खड़े हो तो पति साहित्य को बाद में मिलने को कहेगा।
मरहूम दुष्यन्त कुमार ने इसीलिये लिखा है कि “तू किसी ट्रेन सी गुजरती है मैं किसी पुल सा थरथराता हॅू” पुल कमजोर है और दुबला पतला है इसीलिसे थरथरा रहा है और तू मोटी तगडी है और सीेने पर से गुजरजी है।
खैर, जिस विषय पर लिखना ही न हो उस पर प्रस्तावना क्या लिखना । मैं तो एक डाक घर में बैठ कर मायके गई हुई पत्नी को उसकी अनुपस्थिति के कारण उत्पन्न हुई अतिशय कुशलता के बारे में लिख रहा था कि मेरे गांव के प्रसिद्ध साहित्यकार का पैर टेबिल पर जम गया वे गरजे।
“अच्छा तो साक्षरता अभियान ने पशुओं को भी आदिमानव बना दिया । क्या कुछ लिखा जा रहा है साहित्य में आज कल तुम्हारे मुहल्लों में” ?
मैं श्रृंगार के आसमान से गिरकर वीभत्स के भू खजूर पर अटक गया। मैेने तार सप्तक में जवाब दिया। “मैं अपने व्यक्ति को एक व्यक्तिगत पत्र लिख रहा हु।
” उन्होेंने दहाड़ सप्तक में ज्ञान वगराया “साहित्यकार की कोई भी कृति व्यक्तिगत नही होती है । तुम्हे आज समाज को स्पष्ट बताना होगा कि तुम दक्षिण पंथी प्रगतिवादी हो या पुरातन वादी। आखिर तुम हो क्या तुम्हारा ख्ुाला एजेण्डा क्या है और छिपा एजेण्डा क्या है ?
मैं व्यक्ति के इतने सारे वर्गीकरण नहीं जानता था मैने स्पष्ट जवाब दिया
“मैं न कबीर पंथी हॅू और न तुलसी पंथी। मैं तो एक साधरण सा पत्नी भक्त पति हॅू।“
उनकी आंखो में हिसंक चमक आ गई जैसे वे कुछ करना चाह रहे हो। उन्होने ताली बजाई तो चार पांच गुण्डे हाथ में फरसा और हांकी लिए प्रकट हो गये उस सुप्रसिद्ध साहित्यकार ने उन गुण्डो को सम्बोधित करते हुए कहा
“बुद्धिजीवी साहित्यकारों, यह आदमी अतीत की सडांध मारता हुआ बुर्जुआ है । हमारा नैतिक दायित्व है कि हम इसे प्रगतिशील वामपन्थी बनाये। तुम सब इस पर पिल पड़ों और मैं इसे सध रचित प्रगतिवादी अलख युक्त, अतुकान्त, अवद्ध रचना सुनाता हॅू।“
मुझे यह तय करना मुश्किल हो गया कि मुझे पिटना ज्यादा तकलीफ देगा या उस प्रसिद्ध साहित्यकार की कविता । मै एक ही विद्या के दोनो छोरो से हाथ जोड़ कर बोला। “मुझे बख्शा जाये मैं प्रगतिवादी बनने के लिए तैयार हॅू प्रसिद्ध साहित्यकार नें प्रगतिशील वामपंथी बनने पर मुये बधाई देकर बख्श दिया और बोला
“तुम पहले साहित्यकार हो जो बगैर पिटे की प्रगतिशील बन गये हो। अब चूंकि तुम मुझसे दीक्षित हो गये हो अतः तुम्हे कबीरदास जी का वो कहना मानना चाहिये कि कहे बीर काली कमरी पर चड़े ने दूजो रंग ?
अगर तुम पर दूजा रंग चढ़ा तो साहित्य में खून की नदियाॅ बह जायेगी। “उन्होने सूरदास को कबीर दास जीं में घोल दिया मगर उनका कोई भी कुछ नहीं बिगाड सकता था वे ही सब का सब कुछ बिगाड़ सकते थे। मैं समझ गया कि मुझे धमकाया जा रहा है।
ये जुलाहा काली कम्बले ही बनाता है धवल नही। मैने चुल्लु बना कर उनसे और जल टपकाने की प्रार्थना की तो उन्होने थंूका।
“अब तुम्हारा दायित्व है कि गोष्ठियाॅ करवाओं और उनमें मुझे सभापति बनाओ। इन गोष्ठियों में कविता सुनाने के सर्वाधिकार सभापति के लिये ही सुरक्षित रहेंगे।
मैं जो साहित्य उगलॅूगा उसे तुम सस्मित झेलो और तालियाॅ बजाओं मेरी विल्पववादी रचनाओं पर साहित्यिक टिप्पणी लिखों। जो मेरा विरोध करें उस पर चढ़ बैठो और किल हिम अन टू डेथ।
मैं समझ गया कि मुझसे क्या नहीं करवाया जायेगा वे बोलते ही जा रहे थे। “मेरे लिये कटोरा लेकर चन्दा मांगों जिससे कि मैं विदेश जा सकंॅू। फिर भले ही वहाॅ लाउन्च में ही कविता पढ़ कर क्यों न वापिस आ जाऊॅ।“
मैने मूर्खता पूर्ण एक प्रश्न उनकी तरफ फेंका “आपसे जुड़ने पर सारे लाभ तो आपको हो ही रहे हैं मुझे क्या लाभ होगा। वे घुड़के ।
“साहित्य सेवा में स्वार्थ तलाशते तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम जैसे मात्र पत्नि को पत्र लिखने वालों के ही कारण भारत वर्ष गुलाम रहा है। उठो, एक हाथ में टूटी कलम, दूसरे हाथ में तेज धारदार हथियार और घुटने में दिमाग रख कर आगे बढ़ो। देखों सलज्ज सफलता, हाथों में पुष्पहार लिये कब से तुम्हारी वाट जोह रही है।
पिटो तो मेरे लिए। लिखों तो केवल मेरी तारीफ लिखों और आलोचना करो तो मेरे विरोधियों की करो। हे अज्ञात पथ के राही, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो। इतिश्री खण्ड खण्डे भारत वर्षे मम ग्रामस्य चालाक साहित्यकारस्य उद्बोधन समाप्त।
टिप्पणी- मुझे मालूम है कि साहित्य जगत में सीमित दायरे वाले कई टुकडे़ है जिनके केन्द्र में अल्प योग्यता वाले सर्वाधिक हिंसक व्यक्ति बैठे हुये है ।
वे छेदो को दरार बनाते है और उसमें से रास्ता बना कर विदेश यात्रा करते है। ये गुण्डा धीश, परिधियों में घर्षण करवा कर उसकी चिन्गारी से रोटियाॅं सेंकते है और सिंगार सुलगाते है। उनका धुआ शान्त, सही एवं सर्जक साहित्य कारों का फेफड़ा खराब करता है।
मैंने विरह वर्धक वह पत्र चिन्दी चिन्दी किया और पत्नी को त्वरित आने का साग्रह अनुरोध लिखा। गृह बनवाने वाली और उसमें स्थिरता लाने वाली गृ हस्थी की वहीं धुरी मेरे अन्दर और चारों तरफ का कचरा साफ रख सकती है।
लेखक : : डॉ.कौशल किशोर श्रीवास्तव
171 नोनिया करबल, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
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