बेटे का मकान | Bete ka Makan
बेटे का मकान
( Bete ka Makan )
कभी रहती थी माँ गाँव में,
बाबूजी के बनाए मकान में,
अब रहने लगी है माँ,
बेटे के बनाए मकान में |
शहर की गगनचुंबी इमारतों में,
तलाशती रहती है,थोड़ी सी धूप,
मेरे दसवें माले के फ्लैट की बालकनी में|
फ्लैट में सजाए बोनसाई में,
याद आता है,उसे गांव का पीपल,
जिसकी धूप छाँव में वह दुनिया जीती थी|
गोधूलि की धूल उड़ती हुई,
उसकी आँखों में, दिखती है मुझे,
गायों के रंभाने की आवाज से,
हो जाती है उदास वो,
पैकेट में बन्द दूध को देखकर,
गाँव का शुद्ध दूध, दही याद आता है उसे ,
चेहरा घुमा कर,आँसू पोंछ लेती है धीरे से|
वो पेड़ों की घनी शाखाओं का
खिड़की से झाँकना,
वह गाँव के काले कुत्ते का उस पर झपटना ,
रह-रहकर याद आता है उसे,
बेचैन हो जाती है वो |
चमकीले ,चमकते फ्लैट में,
ढूँढती रहती है, गाँव की सड़क,
खेतों की चने की भाजी और ज्वार की रोटी,
नौकर के हाथों बनी रोटी में,
नहीं आता उसे स्वाद ,
धनिए की चटनी का चटपटापन,
नही भूल पाती,
यादों की पोटली को संभाले
रहती है माँ |
इन्दु सिन्हा”इन्दु”
रतलाम (मध्यप्रदेश)