बोल कर तो देखो
बोल कर तो देखो
सुनो-
तुम कुछ बोल भी नहीं रहे हो
यहीं तो उलझन बनी हुई है
कुछ बोल कर दूर होते तो
चल सकता था…..
अब बिना बोले ही
हमसे दूर हो गए हो
ये ही बातें तो
दिमाग में घर कर बैठी है
अब निकालूँ भी तो कैसे
कोई उपाय तो बताते….
अभी पहला ही कदम बढ़ाया था
और पहले ही क़दम पर
हम मात खा गए
सब अनसुलझा रह गया है
कोई बात अब सिरे
नहीं चढ़ पा रही है….
पढ़ाई लिखाई और समझदारी
तब काम नहीं आती है
जब स्वयं भोगी बनता है
उस समय कुछ भी
नज़र नहीं आता ….
सम्भलने को तो सम्भल सकता हूँ
इतनी बुद्धि तो शेष है अभी
बस एक बार तुम
गिले शिकवे भुला कर तो देखो
तुम एक बार मुझे
अपना दोस्त मान कर तो देख…..!!
?
कवि : सन्दीप चौबारा
( फतेहाबाद)
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