वो कोरोना काल के दिन | Corona Kaal par Kavita
वो कोरोना काल के दिन
( Wo corona kaal ke din )
जब से आया कोरोना है आँसू बहा रहा हूँ,
आफत गले पड़ी है उसको निभा रहा हूँ।
अब हो गया लाॅकडाउन घर में रह रहा हूँ,
आफत गले पड़ी है उसको निभा रहा हूँ।।
सुबह के पाॅंच बजें है में चाय बना रहा हूँ,
बीबी और बच्चों को बिस्तर में दे रहा हूँ।
अब जल्द झाड़ू पोंछा घर में लगा रहा हूँ,
आफत गले पड़ी है उसको निभा रहा हूँ।।
सुबह के 9 बजें है श्रीमती जी उठ रही है,
नाश्ते का सामान टेबिल पर मंगा रही है।
टीवी रामायण देखते-२ कहती जा रही है,
नाश्ता ठीक ना है आता भी कुछ नही है।।
आज शर्म के मारे मैं सब काम कर रहा हूँ,
आफत गले पड़ी है उस को निभा रहा हूँ।
अब चल दिया है मैडम बाॅथरूम में नहाने,
वे साबुन शेम्पु पानी खर्च किऐ जा रहे है।।
मैं बाल्टी-बाल्टी पानी बाहर से ला रहा हूँ,
बचें साबुन के टुकड़े उन्हीं से नहा रहा हूँ।
और खुले हुऐ कपड़े उनको भी धो रहा हूँ,
आफत गले पड़ी है उसको निभा रहा हूँ।।
अब 11 बज रहें है मैडम जी संवर रही है,
फैसक्रीम डव फेरनलवली वें लगा रही है।
नेलपाॅलिस काली लाल पीली एवं है नीली,
उंगली में वें अपनी अलग-२ लगा रही है।।
मैं नेलपाॅलिस की यें डिब्बी बंद कर रहा हूँ,
आफत गले पड़ी है जिसको निभा रहा हूँ।
शाम के 7 बज रहें है मैं खाना बना रहा हूँ,
शाहीपनीर कोपता पराठा मैं बना रहा हूँ।।
देशी घी के वह परांठे मुझसे बनवा रही है,
बीच से वें खाकर किनोरी निकाल रही है।
बची हुई वो किनोरी मैं बैठकर खा रहा हूँ,
आफत गले पड़ी है उसको निभा रहा हूँ।।
वो हुक्म ऐसे चलाएं जैसे दादी बन गई है,
सोफे पर बैठकर सब काम करवा रही है।
मैं दिनभर का थका हारा पाँव दबा रहा हूँ,
आकाश में देखते-देखते तारे गिन रहा हूँ।।
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