
कोई तुमसा नहीं है ज़माने में
( Koi tumsa nahi hai zamane mein )
सूखे पत्ते सा दरखत बन गया था मैं,
देखा तुझको तो जीना आ गया हमें।
आज जीवन संवरने लगा है हमारा,
तुम हमसफर बन गए हो जो हमारा।।
हम थें अनजान तुम भी थें अनजान,
दोनों मिलें यूं ही और हो गई पहचान।
इस चान्द की चाॅंदनी बन गई हो तुम,
तपते भास्कर की लाली बन गई तुम।।
यें रुप तुम्हारा लगता बहुत ही प्यारा,
बिन तेरे घर में रहता बहुत ही ॲंधेरा।
तुम जब आती होता यहांँ पर सवेरा,
कोई तुमसा नही है ज़माने में हमारा।।
लगती हो तुम रुप की रानी महारानी,
गीतों व गजलों में बस जाओ हमारी।
फिर गुनगुनाता रहूंगा गीत गजल को,
प्रीत लगी रहेंगी मेरे इस सूने मन को।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )
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