मुक्तक : कल एक फूल इसी घुटन में मर गया
कल एक फूल इसी घुटन में मर गया
( Kal ek phool isi ghutan mein mar gaya )
कल इक फूल इसी घुटन में मर गया,
कि उसका भँवरा उससे रूठ गया,
वो मरकर यही शिकायत करता रहा..
कि मेरा मुकद्दर ही मुझसे रूठ गया ।
सम्मुख शिकायत करूं तो हिदायत है,
पीठ पीछे करूं तो सियासत है..
हररोज़ जो तस्कर करते हैं तस्करी ,
यही तो थानों की ऊपरी उजरत हैं l
बड़प्पन इसमें नहीं कि हम कितने अमीर हैं ?
बड़प्पन ये है कि हमसे खुश कितने गरीब हैं।
शब्द भण्डार लगता था खाली बहुत।
खामियाँ मुझमे सबने निकाली बहुत।
धैर्य से सब सुना आत्मचिंतन किया-
लेखनी मैंने अपनी सम्हाली बहुत।।
झूठो को आइना दिखाना पड़ता है,
संविधान को गीता पढ़ाना पड़ता है ,
कि जो भी लूटे अस्मत सीता मरियम की ..
उन दरिंदों को फांसी दिलाना पड़ता है।
भटक रहा हूं मैं अपने तिश्नगी के लिए ,
जरूरी हो गया है तू मेरी जिंदगी के लिए
फ़कत सूरज ही नहीं है इसका तलबगार..
हर इक जुगनू है कीमती रोशनी के लिए।
जो देते हैं गरीबों को बुलाकर दोस्तो खाना,
गरीबों की दुआओं में वही भगवान होते हैं,
किसी का दर्द खुदपर ढालकर जो देखते यारों,
वो ‘ नागा ‘ की नज़र में ही सही इंसान होते हैं।
लाखों हैं मगर एक भी दिखते नहीं हैं अब..
रिश्ते कि बात छोड़िए, टिकते नहीं हैं अब..
कल तीन शायरों को हूँ खादी तले देखा,
ये कौन कह रहा था कि बिकते नहीं हैं अब!
कवि – धीरेंद्र सिंह नागा
(ग्राम -जवई, पोस्ट-तिल्हापुर, जिला- कौशांबी )
उत्तर प्रदेश : Pin-212218