धुआँ-धुआँ होकर रह गईं धरती!

( नज़्म ) 

 

जंग का मैदान बनकर रह गईं धरती,
लहू से लथपथ होकर रह गई धरती।
थर्ड वर्ल्ड वार के मुहाने पे न पहुँचे दुनिया,
बारूद का ढेर बनके रह गई धरती।

अमन पसंद इधर भी हैं और उधर भी,
सबका मुँह ताकती रह गईं धरती।
शोलों को हवा मत दो जहांवालों,
अमन की राह देखती रह गईं धरती।

कितने परिंदों को मारा शिकारियों ने,
आजतक शव गिनती रह गईं धरती।
युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं,
बस नरसंहार देखती रह गई धरती।

कोख और मांग को सूनी करती है जंग,
साँसों की भीख मांगती रह गई धरती।
जंग लाती है हरेक के लिए बस तबाही,
घरों पे बम गिरते देखती रह गई धरती।

बाँझ मत बनाओ इस धरा को लोगों,
धुआँ -धुआँ होकर ये रह गई धरती।
मजहबी जंग का कोई अंत ही नहीं,
नफरत के बोझ से सुलगती रह गई धरती।

तपती साँसों को पिघला के क्या पाओगे,
कांपते आंसुओं से उबलती रह गई धरती।
खून अपनों का हो या किसी और का,
हार -जीत में उलझकर रह गई धरती।

 

लेखक : रामकेश एम. यादव , मुंबई
( रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक)

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