डोर
डोर

डोर

( Dor )

रंग बिरंगी पतंग सरीखी,
उड़ना चाहूं मैं आकाश।
डोर प्रिये तुम थामे रखना,
जग पर नहीं है अब विश्वास।।

 

समय कठिन चहुं ओर अंधेरा,
घात लगाए बैठा बाज़।
दिनकर दिया दिखाये फिर भी,
खुलता नहीं निशा का राज।।

 

रंगे सियार सरीखे ओढ़े,
चम चम चमके मैली चादर।
पा जायें तो नोच ही डाले,
मानवता का कोई न आदर।।

 

चाहूं तुम पर बोझ बनूं न,
उन्मुक्त पवन के साथ चलूं।
दर्द कहो या फिर मर्यादा,
प्रिय तुमको ले साथ चलूं।।

 

नज़र प्यार की नजर न आए,
झुकी नज़र गति मेरी बनी।
शिखर लक्ष्य का छू कैसे लूं,
संस्कारहीन छवि मेरी बनी।।

 

रक्षा सूत्र बांध के कर में,
वचन मुझे लेना है पड़ता।
तुम्हीं बताओ आज प्रिये यह,
मुझे क्यों यहां लड़ना पड़ता।।

 

प्यारी बहन स्नेहिल बेटी,
घर से बाहर दिखती खोटी।
अपनी पर विश्वास करे सब,
नारी नर के समान ही होती।

 

सोंच अगर बदले संसार,
उड़ती गगन में पंख पसार।
हाथ डोर न रखनी पड़ती,
जीवन बन जाता उपहार।।

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रचना – सीमा मिश्रा ( शिक्षिका व कवयित्री )
स्वतंत्र लेखिका व स्तंभकार
उ.प्रा. वि.काजीखेड़ा, खजुहा, फतेहपुर

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