इक इक करोड़ के

( Ek ek crore ke ) 

 

वो अश्क हर नज़र में थे इक-इक करोड़ के
दामन सजा रहा था कोई दिल निचोड़ के

शाम-ए-फ़िराक़ में ये बहुत काम दे रहा
तुम जामे-ग़म गये जो मिरे नाम छोड़ के

करता है बात वो तो बड़ी एहतियात से
लफ़्ज़ों को तोड़ के कभी लफ़्ज़ों को मोड़ के

इक दिन उफ़ुक़ पे होगा मिरे दिल का आफ़ताब
सीढी बना रहा हूँ हरिक दिल को जोड़ के

उसके ग़ुरूरे-हुस्न का आलम तो देखिये
क्या लुत्फ़ ले रहा है वो आईना तोड़ के

पीछे हैं इसके आज भी नफ़रत की आँधियाँ
क्यों रास्ता बनायें ये दीवार फोड़ के

साग़र शब-ए-विसाल का मंज़र था लाजवाब
माला बनाई उसने दुपट्टा मरोड़ के

 

कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003

 

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