गणपत लाल उदय की कविताएं | Ganpat Lal Uday Poetry

रोग से घृणा कर रोगी से नही

रोग चाहें कोई सा भी हो वो कर देता है हैरान,
समय से ईलाज न लिया तो कर देता परेशान।
लाखों लोग ले रहें आज बिमारियों का ईलाज,
देखा, सुना है मैनें इससे गई लाखों की जान।।

करना है सब मौसमी बिमारियों से ख़ुद बचाव,
जन-जन तक बात पहुॅंचाना है मेरा ये सुझाव।
पी-लेना काढ़ा बनाकर लगा लेना मरहम घाव,
मक्खी मच्छर से बचना वो शहर हो या गाॅंव।।

रोग से घृणा कर पर रोगी का करना देखभाल,
एक रोज़ मिट्टी हो जाएंगा हाड़-माॅंस व खाल।
अपना हो चाहें हो पराया बोलों यह मीठे बोल,
न आता ये किसे बोलकर जीवन है अनमोल।।

भूखें नंगे व कंगाल आज भी है अनेंक इन्सान,
एक रोटी के लिए अपना खोए हुएं है सम्मान।
दुःख अपना किसे ना सुनाते बन जाते अंजान,
झुग्गी-झोपड़ी में रहकर भी समझते है शान।।

कभी देख लो इनको मुड़कर बाबू जी धनवान,
खनकते सिक्कों से ख़ुश होकर करते बखान।
ज़िंदगी केवल जीना जानते सब-कुछ वर्तमान,
परिवार को सार्थक मानते चाहें न हो मकान।।

भाई दूज का त्योंहार

आओं मनाएं भाई-दूज का त्योंहार,
बहन को दे एक अच्छा सा उपहार।
भाई बहन का ये पवित्र ऐसा रिश्ता,
माॅं जैसा प्यार इस बहन से मिलता।।

इसी दिन का बहनें करती इन्तजार,
वर्ष में एकबार आएं पावन त्योंहार।
चेहरे पर आएं मीठी-मीठी मुस्कान,
घर-ऑंगन जाएं खुशियों की बहार।।

सजाकर लाए बहनें पूजा का थाल,
ऑंगन की शोभा बरसाएं वो प्यार।
मस्तक पे चंदन तिलक वो लगाती,
उतारकर आरती करती है सत्कार।।

एक मात्र धागे का अटूट यह बंधन,
यही संस्कृति रक्षा सूत्र अभिनन्दन।
ये हाथ सदा सुरक्षा कवच बना रहें,
लंबी उम्र पाएं भाई करती ये वंदन।।

अपार दुआएं भैया बहन से पाकर,
मिठाइयां बहन के हाथ से खाकर‌।
देता है अनमोल बहनों को उपहार,
ऐसा है यह भाई बहन का त्यौहार।।

सारा सच लिखा मैंने इस रचना में,
महत्त्व रखता है ये भी इन पर्वो में।
कई पौराणिक कथा है इसके पीछे,
जो आएं कार्तिकशुक्ल द्वितीय में।।

संघर्ष से मिलती सफलता

सफ़लता पाने के लिए करना-पड़ता है प्रयास,
सांसारिक बातें है परिवर्तन क्यों होता निराश।
आचरण, संस्कार संस्कृति से होता है विकास,
जीवन में एक लक्ष्य रखो ज़रुर होगा प्रकाश।।

सबके जीवन में आता है सुख दुःख का संघर्ष,
आत्मबल जगाओ अपना होगा तुमको सहर्ष।
चले-चलो और बढ़तें रहो बनों तुम भी आदर्श,
असफलता का सामना कर बनों तुम उत्कर्ष।।

सरल विनम्र व्यक्तित्व रखो सादा जीवन तरल,
भविष्य अपना बनानें खातिर पी जाओ गरल।
गौरव-गाथा लिखी हुई है रचा कई ने इतिहास,
चलों उठो पंख पसारो चाहें राह ना हो सरल।।

करो संकल्प हृदय अपरिमित अज्ञान दूर भगा,
हरगिज़ ना रख पीछे क़दम बोलें चाहें ये सगा।
महकादे सबकी रोम-रोम अब ऐसा कर दिखा,
चरण रज लो शारदे का दौड़ ऐसी फिर लगा।।

सही निर्णय लेकर समय से कौशल यह दिखा,
भूल जा कुछ दिनों के लिए सहपाठी व सखा।
जौहर कर अपनें ख़ून का क्या हूॅं मैं यह दिखा,
भविष्य बना अपना बेटा अन्धेरे में क्या रखा।।

मुझको जिंदा रखेंगी ये रचनाएं

मुझको जिंदा रखेंगी मेरी लिखी हुई ये‌ रचनाएं,
सरल और सीधी है जिसमें मेरी यह भावनाएं।
अल्लाह जीसस वाहेगुरु राम जिसमें है समाएं,
अन्तर्मन के है सारथी मुझे सफ़ल यह बनाएं।।

सुनो साथियों बात हमारी खज़ाना यही है मेरा,
कष्टों का बादल गिरा क़दम डगमगाया न मेरा।
दुविधा-भरे मन को समझाकर देता रहा पहरा,
कभी मुरझाया कभी मुस्कराया ये चेहरा मेरा।।

सोच समझकर लिखता रहा कविताएं में प्यारी,
सरल, सहज हिन्दी-भाषा लगी मुझको प्यारी।
सकारात्मक-बल मिला इससे बदन को हमारी,
मान-बढ़ाती गई लेखनी ये है प्राणों से प्यारी।।‌

इस लेखनी से ही बनी है आज हमारी पहचान,
लेखन करके निखरा एवं बढ़ाया मान सम्मान।
मन-मस्तिष्क, बुद्धि-विवेक से छूआ आसमान,
अस्त्र शस्त्र यही है मेरा इसी ने बनाया महान।।

इस साहित्य ने मुझको यारों कर दिया दिवाना,
देश-सेवा के संग सीखा ये काव्य-पाठ करना।
जीवन में बहुत दी परीक्षाएं किया आना जाना,
अब तो इस लेखनी संग मुझको जीना मरना।।

उधार देना सोच समझकर

निकल गई है कई दिवाली,
पर निकला नही उसका दिवाला।
जब भी जाता हूॅं पैसे माॅंगने,
घर लगा हुआ मिलता यह ताला।

क्या करूॅं मैं और क्या नही,
ऐसी पाल रखी है आज में बला।
अब दर्शन ही दुर्लभ हो गया,
पकड़ ली आज उसने यह कला।

पहले अच्छा रिश्ता था हमारा,
अब बन गया विश्वासघात वाला।
बहाने, झूठ का ले रहा सहारा,
मैं घूम रहा आज पैसे-देने वाला।

क्यों दिया पैसे उधार हे रामा,
मैं हो गया बिलकुल ही अकेला।
चक्कर पे चक्कर दे रहा मुझे,
खेल खेला वह नहले पर दहला।

न देना यारों उधार किसी को,
वह कर देगा पागल पैदल चला।
भिकारी समान वह बना देगा,
तारीख पे तारीख वो देने वाला।

गोवर्धन गिरधारी

आज पूज रहा है आपको सारा-संसार,
मौज और मस्ती संग मना रहा त्यौहार।
कभी बनकर आऍं थे आप राम-श्याम,
कई देत्य-दुष्टों का आपने किया संहार।।

रघुकुल नन्दन आप ही गिरधर गोपाल,
घर घर में सजावट गोबर गोवर्धन द्वार।
जीवन में भर दो हमारे खुशियां अपार,
पहना रहें है हम आपको फूलों के हार।।

धरा पर पधारों आप फिर से घनश्याम,
बिगड़ रहीं है धीरे-धीरे समय की चाल।
हम सब को गोपाल करों आप निहाल,
इन गायों का देखों हो रहा है बुरा हाल।।

घमण्डियों का घमण्ड किया चकनाचूर,
शरणार्थी की रक्षा आपनें की है ज़रूर।
उॅंगली पर धारण किया गोवर्धन पहाड़,
बखान आपकें पढ़ें और सुनें है भरपूर।।

अत्याचार‌ व भ्रष्टाचार हो रहा सब और,
इन पापियों के पाप से बढ़ रहा है शोर।
संकट हरो मुरलीधर जगत पालन-हार,
जिंदगी ‌को दें जाओ खुशियों की भोर।।

रचनाकार : गणपत लाल उदय

अजमेर ( राजस्थान )

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