ग़र ना होती मातृभाषा
( Gar na hoti matribhasha )
सोचो सब-कुछ कैसा होता,
ग़र ना होती मातृभाषा ।।
सब अज्ञानी होकर जीते
जग-जीवन का बौझा ढोते,
किसी विषय को पढ पाने की
कैसे पूरी होती अभिलाषा।।
कैसे अपना ग़म बतलाते
कैसे गीत खुशी के गाते,
दिल की दिल में ही रह जाती
जीवन होता भरा हताशा।।
खो जाता सब लोक-साहित्य
जीवन में संस्कार ना होते,
सत्य अहिंसा और धर्म की
ना होती कोई परिभाषा।।
सभ्य कभी नहीं बन पाते
जंगली-जाति के कहलाते,
ज्ञान-विज्ञान “कुमार” सब होता
आदिम-युग का बासा-बासा।।
लेखक: मुनीश कुमार “कुमार”
(हिंदी लैक्चरर )
GSS School ढाठरथ
जींद (हरियाणा)
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