विकास और बाजार 

( Vikas aur bazaar ) 

 

हमने मान लिया

इंसान को भगवान

और भगवान को पत्थर,

पत्थर को रख कर

लगा दिया बाजार

और फिर शुरू हुआ

विकास का क्रम,

जमीने बिकने लगी

औकात को देख कर

लोग होने लगे बेघर

सड़के चौड़ी होना शुरू हुई

पेड़ कटने लगे

उखड़ने लगे

जड़ समूल,

टावर लगे

रेडिएशन बढ़ा

पक्षियां मरने लगे,

विकास के इसी क्रम में

संस्कृति,

सभ्यता,

संस्कार,

मानवता

का शुरू हुआ

विनाश और हनन,

और आज भी

हम दौड़ पड़े हैं

झोली लिए

विकास को

पाने।

रचनाकार रामबृक्ष बहादुरपुरी

( अम्बेडकरनगर )

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